विधवाश्रम [आर्यसमान एक ऐसी सुधारक संस्था के रूप में उदय हुना जिसने हिन्दू समाज के सम्पूर्ण दासता के बंधनों को काटकूट कर उन्हें 'उठो-जागो' के पुकार से जगा दिया। आर्यसमाज की यह सेवा भन्लाई नहीं जा सकती। परन्तु स्वार्थी और चरित्रहीन पुरुष सब भला- इयो को बुरा रूप दे देते हैं। आर्यसमाज में भी ऐसे लोग घुस गए। उन्होंने केवल अपनी हीन-चरित्रता ही पर संतोष नहीं किया, अपनी कुल्ला को ऐसा भगा किया कि आर्यसमाज के समाज-सुधार के महत्त्व- पूर्ण अंग बहुत विकृत हो गए। सुधारक की स्थिति उस चिकित्सक के समान है जो भयानक छूत की बीमारियों की चिकित्सा करता है। ऐसे चिकित्सकों को अपनी शुद्धि का उतना ही ध्यान रखना पड़ता है जितना रोगी को प्राण रक्षा का। इस काम में तनिक भी असावधान होने से चिकित्सक पर ही प्राणसकट भाने का भय रहता है। इस कहानी में बहुत तीन व्यंग और असंतोष की भावना में लेखक ने 'विधवाश्रमों के भीतरी कुत्सित जीवनों का भण्डाफोड़ किया है- जिनकी स्थापना श्रावसमाज ने उसकी अत्यन्त आवश्यकता समझ कर की थी। और अन्त में सच्चे अर्थों में कुहनखाने बन गएं । लेखक को कुछ दिनों तक बिलकुल निकट से ऐसी संस्थानों को देखने का अवसर मिला है इसलिए उसके ये रेखाचित्र काल्पनिक नहीं, सच्चे हैं ] 'एक गन्दी और तङ्ग गली के भीतरी छोर पर, पुराने पक्के दुमञ्जिले मकान के भौवरी हिस्से में, एक कोठरीनुमा कमरे में
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