पृष्ठ:पीर नाबालिग़.djvu/९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विषनाश्रम चार-भूर्नियाँ एक टेबिल पर बैठो धीरे-धीरे बात कर रही थीं। यह मकान वास्तव में विधवाश्नम था और वह मनहस कमरा था उसका दफ्तर। टेबिल पर कुछ मैले जिन्टर, पुरानः पुन, दो-एक साबाहिक पत्र, कुछ काराक ओम कुछ, चिट्टियाँ अस्त-व्यस्त । पड़ी थीं। चारी व्यक्तियों में जो प्रधान पुन थे. उनकी उम्र कोई पचास वर्ष की होगी। उनका रङ्ग कनई नवे की भाँनि, हा साहवनुमा सफाचट वदन गटीला, दलिगना, चाल दिल्ली के समान और वष्टि साँप के समान थी। हदय कैला था, इसका भेद बह जान ओ वहाँ की मैर कर पाया हो। आप विशुद्ध रूदर पहनते थे और किसी को सम्मुश देनन ही मुस्कुरा कर तिी गर्दन कर के देनी हाथ जोड़ कर नमस्ते करते थे। श्रापकर असली और पुराना नाम ना था मुग्नदयाल, परन्तु आर महत्तायन से डॉक्टर साहब के नाम से ही पुकारे जान थे। अपने कय, कहाँ और कितनी डॉक्टनी पड़ी, यह जानने का अब कोई उपाय नहीं। एक युग हो गया तभी से अापका यह नाम पेटेण्ट हो गया है। सुना है, बहुत दिन हुए.-श्राप किसी गुरुकुल में कम्पाउण्डर थे। वहाँ के रसोइए, कहार और कोई-कोई ब्रह्मचारी भी आपको डॉक्टर ही कह कर पुकारते थे, तभी से आपका यही नाम पड़ गया। आश्रम में आने पर श्रापको तीन नाम और पेटेष्ट करने पड़े-पिता जी, अधिष्ठाता जी और संरक्षक जी। चारों धर्मात्मा बैठे धीरे-धीरे बातचीत कर रहे थे कि भीतर