का उद्घाटन होगया। साथ ही यह भी मालूम होगया
कि यह लिपि अरबी-फारसी-लिपि के सदृश दाहिनी तरफ़
से बाईं तरफ को लिखी जाती है। और सेमेटिक वर्ग
की है। पर इस लिपि में लिखी गई भाषा कौनसी है,
इसका पता तब तक भी नहीं लगा। १८३८ ईसवी में
बाक्ट्रिया के ग्रीको के कुछ सिक्कों पर पाली-भाषा के लेख
मिले। इस पर यह सन्देह हुआ कि खरोष्ठी-लिपि वाले
लेखों की भी भाषा हो न हो पाली ही होगी। यह
अनुमान सच निकला। अतएव इस लिपि में लिखी हुई
भाषा का भी पता लग गया। इस भाषा-ज्ञान की सहायता से प्रिंसेप साहब ने खरोष्ठी के १७ अक्षर पढ़ लिये।
अवशिष्ट अक्षरों में से कुछ नारिस साहब ने और कुछ
जनरल कनिहाम ने पढ़े। इस तरह इस वर्णमाला का भी
सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त होगया और भारत के प्राचीन इतिहास
की जानकारी प्राप्त करने का मार्ग यथेच्छ खल गया।
"एन्झ्यंट इंडियन अल्फाबेट" नाम की पुस्तक में
इस विषय का बड़ा ही मनोरञ्जक वर्णन है। कितनी
कठिनाइयों को पार करके और कितने अजस्र उद्योग करने
के अनन्तर प्राचीन लिपियों को पढ़ लेने में सफलता हुई,
इसका अन्दाज़ा पूर्वोक्त लेख पढ़ने पर ही हो सकता है।
इस काम में सबसे अधिक सफलता प्रिंसेप साहब ही को
हुई। अतएव हम भारतवासियों को उनका विशेष कृतज्ञ