देवता के सदृश पूजने लगे। अगस्त्य ही ने वहाँ पहले
पहल आयुर्वेद का प्रचार करके रोग-निवारण की विद्या
लोगो को सिखाई। कहते हैं कि उन्होने तामील-भाषा
का प्रचार या सुधार किया। द्रविडदेशीय वर्णमाला का
संशोधन भी उन्हीं के द्वारा हुआ माना जाता है। उसके
व्याकरण का निर्माण भी उन्हीं ने किया। उन्हीं के
नामानुसार वह अगोथियम आख्या से अभिहित है।
मूर्ति-निर्म्माण-विद्या पर भी अगस्त्य ऋषि के द्वारा
निम्मित एक संहिता सुनी जाती है। मतलब यह कि
इस महर्षि ने दक्षिणापथ को मनुष्यों के निवासयोग्य
ही नहीं बना दिया, किन्तु उन्होंने वहाँ के निवासियों को
धर्म्म, विद्या और कलाओं आदि का भी दान देकर उन्हें
सभ्य और शिक्षित भी कर दिया।
परन्तु अगस्त्य को इतने ही से सन्तोष न हुआ। उपनिवेश-सस्थापन और सभ्यता-प्रचार की पिपासा उनके हृदय से फिर भी दूर न हुई। इस कारण उन्होंने समुद्र-बन्धन को तोड़कर द्वीपान्तरों को जाने की ठानी। उन्होंने समुद्र को पी डाला। अथवा आज-कल की भाषा में कहना चाहिए कि तरण-योग्य यान या जहाज़ वनवा कर उनकी सहायता से वे उसे पार करके उसके पूर्व तटवर्त्ती द्वीपों या देशों में जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने हिन्दू या भार्य्य धर्म्म का प्रचार आरम्भ कर दिया।