पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१०५

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१०४ पुरानी हिंदी आया, इन्होने चुना' । किंतु और बातो मे विना समझे लीक पीटते गए, अपना नया सप्रदाय चलाना चाहते रहे। जैसे हिंदुस्तान में कई राजामओ ने अपना नया सवत् चलाया जो कुछ ही वर्ष पीछे उनके वश का राज्य नष्ट होने पर आगे न चला वैसे ही इन्होने नई परिभाषाएं चलाई । पाणिनि ने बहुत सक्षेप किया था चाहे उस समय लेखन सामग्नी की कमी से सक्षिप्त लिखने की चाल रही हो, चाहे कठस्थ करने के सुभौते के लिये, सूत्र ऐसे रचे गए हो, चाहे वैदिक साहित्य और स्वरविचार की अधिकता से सक्षेप करना पड़ा हो। अब कागज की कमी न थी, रटने की चाल भी कम हो गई थी, न इनकी रचना मै ऐसी पवित्रता थी कि वह पारायण मे आती, और वैदिक भाग और स्वर को इन्होने छोड हो दिया था। तो भी पाणिनि से बढकर सक्षेप करने की धुन इनपर सवार थी, पारिणनिवालो ने आधी मात्रा के लाघव को पुत्रोत्सव समझा तो इन्होंने पौत्रोत्सव समझा । पाणिनि से अपना विलगाव दिखाने के लिये कुछ पुरानी सज्ञाएँ काम मे ली, कुछ नई गढी, उसकी 'संज्ञा' को, 'नाम' कहा, 'सु' को 'सि कहा, 'हलको - १ L . जैसे विश्रम के अर्थ में विश्राम ( चाद्र, मेघदूत श्लोक २५की मल्लिनाथ कृत टीका)। जैसे बार्हस्पत्य सवत्सर अर्थात जिस नक्षत्र में बृहस्पति का उदय सूर्य से युति होकर फिर अस्त से निकलने पर वर्ष के प्रारभ मे हो उसपर से वर्ष का नाम पौपसवत्सर, माघसवत्सर आदि रखने से गणना करना । पाणिनि, कात्यायन, पतजलि के समय मे यह वार्हस्पत्य गणना नही थी, उन्होंने सास्मिन पौर्णमासीति सज्ञाया ( ४१२।२१ ) नक्षनेण युक्त काल ( ४२२३) से पोप, माघ आदि महीनो के नाम हो बनाए । बार्हस्पत्य गणना पुराने कदवो और गुप्तो के शिलालेखो मे मिलती है। (प० गौरीशकर हीराचद औझा जी की प्राचीन लिपिमाला, पृ० १८७ ) चाद्र व्याकरण मे इसके लिये सूत्र है--गुरुदयाद्भाद् युक्तेऽन्दे, शाकटायन-उदितगुरो युक्तेऽन्दे । काशिकाकार ने 'पौष मास की तरह ही पौष सवत्सर (मासार्धमाससव- त्सराणामेषा सज्ञा ) बनाना चाहा, किंतु यो प्रत्येक सवत्सर ही पौष, माघ आदि हो जाता है, विशेष सज्ञा नही होती, हर एक मे पुष्य, मघा आदि आते हैं, बिना गुरूदय का उल्लेख किए काम नहीं चलता। २ चाद्र व्याकरण, 'असज्ञकम्' । ३ 'सु' "सि मे एक रहस्य है । सिद्ध पद के अंत में स् ( . ) मे आता है, या सधि मे ओ या र। सुसि मे उ इ दोनो वैयाकरणो मे सकेत है। शौरसेनी ।