पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१२२

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पुरानी हिंदी १२१ जि किए लोग इन धातुरो से प्रत्यय ही न कर सके । मुर्या सवेरा होने पर चोलता है किंतु फेंच भाषा के एक नाटक मे एक मुर्गे को यह अभिमान होना बताया गया है कि मैं न वोलूंगा तो सवेरा ही न होगा । अस्तु । यो चौथे पाद मे कई धातुओ के आदेश गिनाए है जिनमे कई तो तद्भव धातु हैं और कुछ देशी ! जैसे भ्रम (= घूमना) के अठारह प्रादेशो में चकम्मई-चढक्रम से, भम्मडइ, भमडइ, भमाडइ--भ्रम से ही स्वार्थ मे ड लगाकर, तलअण्टइ-तल + अट से, भुमइ, फुमइ-भ्रम से, परीड, परइ-परि + इ से, तद्भव माने जा सकते है । टिरिटिल्लइ, ढुण्डुल्लइ, ढगहलइ, झण्टड, झम्पड़, गुमइ, फुसइ, डुमइ, दुसइ रहे, इन्हें देशी धातु मानो या अनकरण आदि से बना समझो । देशी के भाडार ने से सस्कृतवाले 'सस्कृत' करके और प्राकृतवाले यो ही लेते रहें । पहलो ने यह नहीं कहा कि हमने लिया, यही कहते गए कि हमारा ही है, दूसरो ने देशी और तद्भवो की छाँट न की, क्योकि तद्भवो को अपने थोडे से नियमो से ही बंधा माना, व्यत्यय का विचार न किया। आगे हम पुरानी हिंदी कविता को और भी पीछे ढूंढने का यल करेगें । ३. का४।१६१ ।