पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१२६

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पुरानी हिंदी १२५ वे, धन्य (हैं), कान, हृदय, वे कृतार्थ (हैं) जो क्षण क्षरण मे नए, सुप्रर्थों (या श्रुतार्थो) को छूटते (चूंटो से पीते ) है, और धरते हैं । कन्नुल्लड, हिउल्ल, नउल्लडअ-स्वार्थ मे कान और हिय के लिये घुटहिं और घरहिं यथासख्य लगाना। (११) पइठी कन्नि जिणागमहों वत्तडियावि हु जासु । अम्हार' तुम्हारहुँ वि एह ममत्तु न तासु ॥७॥ [हिंदी-सम = 4ठी कान जिनागम (फी) बातडी भी जासु । हमारो तुम्हारो यह ममत्व न तासु ।] वत्तडिआ-बात, देखो रत्तडी (आगे न० २) इन उदाहरणो मे व्याख्यान या व्याकरण का विस्तार नहीं किया गया है। आग दूसरे भाग में जहाँ इनसे मिलते हुए दोहे या पद पाए हैं वहीं देखना चाहिए। अपने व्याकरण के सूत्रो को पहले प्राचीन उदाहारणो से समझाकर हेमचद्र ने ये नये उदाहरणो के सग्रहालोक बनाए हैं जिनमे वे ही या उनसे मिलते हुए उदाहरण विषय के अनुसार यथास्थान जमाकर बखे हैं ।