पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१२८

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पुरानी हिंदी १२७ घुसेड देता है । विद्वान् ने यह नहीं देखा कि यह दोहा और इसका सून एक ही प्रति में हैं, उसने छपी पुस्तक को आदि से अत तक वररुचि की ज्यो की त्यो कृति मान लिया । व्याकरण के पथ विचार, समय, उदाहरण और टिप्प- गियो से यो ही बढ जाते हैं । इस विषय को अधिक बढाना व्यर्थ है । सस्कृत व्याकरए-के चातिककार वररुचि कात्यायन, पाली व्याकरण का कच्चाअन, और प्राकृत प्रकाश का वररुचि तीनो एक कभी नहीं हैं। विट्टीए मइ भरिणय तुहुँ मा ,कुरु वड्वी दिछि । पुत्ति सकण्णी भल्लि जिवं मारइ हिअइ पविट्ठि ॥ विटिया ! मैंने भरणी-(- कही गई) तू,- मत, कर, वांकी, दीठ, पुनि ! सकर्णी (= कानवाली, नुकीली) भल्ली (छोटा भाला), जिम, मार, हिये मे, पैटरी (वह) । वृद्धा कुट्टिनी नायिका को समझाती है। विट्टीए, सबोधन का ए, पविदिठ-प्रविष्टा, स० प्रविष्टी', हि-पैठी। . । . एइ ति घोडा एह थलि एइ ति निसिमा खग्ग । एत्यु मुणीसम जाणीअ जो नवि वालइ वग्ग । थे ही, वे," घोडे (है), यही, स्थली ( है ), ये ही, वे, निशित (= पैने ), खड्ग ( हैं ), यहाँ मनुष्यत्व, जाना जाता है, जो, नही भी, फिरावे, (घोडो की ) वाग । ये घोडे हो, यही रणस्थल हो और ये ही धारदार तलवार हो, वहां जो घोडे की बाग मोडकर भाग न जाय, सामने डट, तो यहाँ मनुष्यत्व ( मरदानगी ) जाना जाय । मुरणीसम-सस्कृत मे कुछ ही स्थलो मे 'इम लंगकर पुल्लिग भाववाचक बनता है, प्राकृत मे सब जगह । नविन+ अपि । वालइ-बल् (धूमना ) का प्रेरणार्थक । राज- पूताने मे यह दोहा प्रचलित है, ठाकुर भूरसिह जी शेखावत के विविध संग्रह मै उद्धृत है । देखो, ना० प्र० पत्रिका भाग २, पृ० १६, टि० ५। (५) दहमुह भुवरण-भयकर तोसिमसकरु रिणग्गठ रह-वरि चडिअउ । चउमुह छमुह झाइवि एक्कहि लाइवि रणावइ दइवे घडिमउ ।।