पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१३१

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. १३० 'पुरानी हिंदी वृक्ष से, ग्रहण करता है, फलो को, जन, कटु पल्लवो को, बरजता ( छाडता ) है, तो भी महाद्रुम, सुजन, जिम, तिन्हें, उत्सग ( गोद ) मे, धरता है । लोग कडे पत्तो को छोड दें तो छोड दें, वृक्ष थोडे ही उन्हें छोड देगा? ( १२) दूरुड्डाणे पडिउ खलु अप्पर जणु मारेइ । जिह गिरि-सिङ्गहुँ पडिअसिल अन्नुवि चूरकरेइ।। i दूर ( की ) उडान से ( ऊंचे पद से ), पंडा हुआ, खल, अपने, जन (को), मारता है, ज्यो, गिरि शृग से, पड़ी हुई, शिला, अन्य को भी, 'चूर, करती है । मारेइ-मारे, करेइ-करे। दुष्टे का वढना अपने कुल के ही प्रहित के लिये होता है। (१३) जो गुण- गोवइ अप्पणा पयडा करइ परस्स । तसु हउ कलिजुगि-दुल्लहहो बलि किज्जउ सुश्रणस्सु ॥ जो, गूण, गुपाता (छिपाता) है, अपने, प्रकट, करता है, परके, तिसकी, मैं, कलियुग मे, दुर्लभ की, बलि, किया जाऊँ, सुर्जन की गोवई-गोष, छिपाता है, गुप्त करता है, मिलानो गुइयाँ = अतरंग' ( गुप्त ) सखी। हो, मै। वलि किज्जउ-बलिहारी जाऊँ, बल जाऊ, वलया लू, देखो पृ० १७२ मे (.५) 1 दोधकवृत्तिवाला कहता है कि बलि पूजा क्रिये इति भाव. ! (११) तगह तइज्जी-भङ्गि नवि ते अवडयडि वसन्ति । अह जणु- लग्गिवि उत्तरइ अह सह सइ मज्जन्ति । तृणो की, तीजी, चाल, नहीं (है), तिससे, अवटतट मे, बसते है, या, जन, ( उनसे ) लगकर ( उनका सहारा पाकर ), उतरता है। या, साथ, स्वयं, डूबते हैं । अवट या विपम कूप या खड्डे के तट पर उगनेवाले तृणो के दो ही काम हैं-या तो उनकी कृपा से डूबता आदमी बच जाय, या वे उसके साथ डूब जायें; उनकी कोई तीसरी भगि नही । अन्योक्ति मे; या तो दूसरे को तार दे वा स्वय मारा जाय । तइज्जी-तीजी तीसरी । नवि-न भी; नहीं । अह अह। सं० (अर्थ) या "या । सइं-स्वय, सै - सव ।