पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१४१

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१४० पुरानी हिंदी i साहु वि लोड इस (का), दग्ध कलेवर का, जो, वाहित (हुना = बीत गर्यो, चले गया), वह सार । = अच्छा) है, जो तोपा (जाता है) (= ढंका जाता; गाडा जाता है) तो कुथता (सडता) है, और, दग्ध होता (जलाया जाता) है, तो शार (होना है)। दड्ढ-दाढा । दग्ध, 'सार-गुजराती सारु, अच्छा। उट्टन्भइ-सं० उत्तभ्यते । कुहहि-स० कुथ्यते, क्वथति । डज्झइ-दाझ, स. दह्यति । छार- क्षार, राख, भस्म । (४८) तडप्फडइ बड्डत्तणही तणेण । बड्डप्पणु परि पाविनइ हत्थि मोक्कलडेरण ॥ सव, भी, लोक, तडफडाता है, वडप्पन के, लिये, उडप्पन, परें, पाया जाता है, हाथ से, देने से । साहु-सउ, सै-तडफ्फैडइ-उत्सुक होता है। वड्डत्तएँ- वडापन । तणेण-वास्ते से । मोक्कलड, मोक्कलण-देना (गुजराती)। (४६) जइ सुन प्राव घरु काइ अहोमुहु तुज्झु । वयण जु खण्डइ तर सहिए । सो पिउ होइन मज्झु ।। यदि, सो, न, याता, है, दूति ! घर, क्यो, अधो-मुख, तेरा (हुआ)? वचन (और वदन), जो खडित करता है, तेरा, सखि !, सो, पिय, होता है, न मेरा । कुमारपालचरित के परिशिष्ट मे 'सहि एसौ छयों है । दूती को उपालभ है । अधोमुख' खडित वदन को छिपाने के लिये है, वचन का खडन कहना न मानने से है। वयणु-बचन और वदन का श्लेष । (५०) काई न दूरे देक्खइ। क्यो, न, दूर, देखता है ? (५१) सुपुरिस कडगुहे अणुहरहिं भण कज्जे 'कवणेण'!' जि जिवं वड्डत्तणु लहहिं ति तिवं नवहिं सिरेण ।। सुपुरुष, कैगु की, अनुहार करते हैं, कह, कांज, कौन से ? ज्यो ज्यों बड़प्पन, पाते हैं, त्यो, त्यो नैवते हैं, सिर से । कङ्गु-एक धान । अनुहरहि- ,