पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१५३

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१५२ पुरानी हिंदी क्यों (कर), समाप्त हो दुष्ट, दिन, कैसे, रजनी, झट, होय, नव वधू (के) दर्शन ( की ) लालसा ( वाला ), वहता है, ( ऐसे ) मनोरथ, सो (वह नायक ) चहइ-धारण करता है, उठाए फिरता है । केम-गुजराती केम । छुडु-छ' का 'झ' होने के लिए देखो ऊपर (२७), ( ८८), झट। (६३) ओ गोरीमुहनिज्जाउ वहलि लुक्कु मियकु । अन्नु वि जो परिहवियतणु सो किवं भवेवर निसकु ॥ यह गोरी (के) मुंह (से) निर्जित, वादल मे, लुका (है) मयक अन्य, भी जो, परिभूत (हारे हुए) तनु (का), (है), सो, किमि, भ्रम, निसक । हारे हुए मुंह लुकाए फिरते है । परिहविय-परि+भू- हारना (सं०) 'भू' का 'हो । विम्बाहरि तरण रयणवरण किह ठिउ सिरि आणन्द । निरुवम रसु पिएँ पिअवि जणु सेसहो दिण्णी मुद्द।। विवा (फल के से अघर पर का, रदन (दंत) वरण, कैसा स्थित, (हुआ), श्री आनंद निरुपम, रस, पिय ने, पीकर जनु शेप (रस) के, (-पर), दीनी, मुद्रा । अधर पर दंतक्षत क्या हैं, मानो अनुपम रस पीकर, पिया ने वाकी पर अपनी मुहर लगा दी है। विम्वाहरितणु-विवाधर पर, तन्वी के यह अर्थ करने की कोई आवश्यकता नही, 'तरण तण या तणो' सबंध, सूचक प्रत्यय हैं 'विवाघर-पर-का-रदन व्रण' यही अर्थ है । ठिड-थियो, थो, था। सिरि पारपन्द- संबोधन है तो किसी का नाम । सभवत. कवि 'का, या रदनवण का विशेषण । सेसहो-हो को लघु पढो । (९५) भण सहि निहुउ ते मइ जइ पिउ दिछु सदोसु । जेवें न जाणइ म मणु पक्खावडिअ तासु ॥ सखी नायक की शिकायत कर रही है। मुग्धा कहती है—कह, सखि निभृत (गुप्त), त्यो मुझे, यदि, प्रिय, दीठा (है), सदोष, ज्यो, न, जाने, सुझका (मेरा) मन, पक्षापतित (= पक्षपाती), तिसका। मेरा मन उस (प्रिया) का पक्षपाती है, वह न जाने, उससे छिपा कर कह । अमरु के 'नीचः आस, हृदि स्थितो हि ननु मे प्राणेश्वर. 'श्रोषयति' का भाव है। 'उस दूसरे