पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पुरानी हिंदी १६६ चला जाय ( भूल जाय) उनके नेह का नाम ही क्या ? कुछ नहीं। जिसका नेह है वह कभी भूला नहीं जा सकता और उसके स्मरण की जरुरत नहीं। सुमारज्जइ-मुमरीजै, मगाउ-मनाक ( दोधकवृत्ति ), मन ने, जाउ -यदि, कइ नाउ काई नाव? ( जयपुरी) । ( १४६ ) जिभिन्दिउ नायग वसि करहु जमु अधिन्नई अन्नई । मूलि विठ्ठइ तुविरिणहे अवसे सुक्कइ पाइ॥ जीभ इद्रिय को, हे नायक ! वश करो, जिमके, अधीन अन्य, (इदिय) (है) मूल (मे) विनष्ट (मे) होने पर, तूंबी के, अवश्य सूखे, पान । मूल विट्ठइ- भावलक्षण, तुविरिण-तुविनी, तूंची, सुकइ-सुकै । ( १५० ) एक्कासि सोलकलकिमहं देहि पच्छित्ताइ । जो पुण खडड अए दिनहु तसु पच्छित्ते काइ ॥ एक बार शीलकलकित ( करनेवालो) को, दिए जाते हैं प्रायश्चित्तः, जो, पुनि, खडित कर (शील को), अनुदिवस. उसके, प्रायश्चित्त से, क्या? एक्कसि एक वार के अर्थ मे, एकश., मारवाडी एकरश्या, एकश्या, देजहि-दीज, खण्डइ-खण्डे, अणु दिहहु-दिन दिन । ( १५१ विरहानलजालकरालिप्रउ पाहिउ पन्थि ज दिउ । त मेलवि सन्वहि पन्थियहि सो जिकिअउ अग्गिउ ।। विरहानल ज्वालामो से करालित, पथिक, पंथ मे, जो, दीठा, उसे मिलकर सब (ने), पथियो ने, सो जो किया, अंगीठा : विरह-ताप की अधिकता की अतिश- योक्ति मिलानो (१०६) । दोधकवृत्ति शायद यह अर्थ करती है कि पथिको ने उसका, अग्नि सस्कार कर दिया 'अग्निष्ठ. कृत' । मेलवि-मिलकर, या रख- कर । अग्गिढउ-अंगीठो, स्त्री० अंगीठी, अनुस्वार के लिये देखो पत्रिका भाग २, पृ० ४० । ( १५२ ) सामिपसाउ सलज्जु पिठ सीमासधिहि वासु । पेक्खिवि वाहुवनुल्लडा धण मेल्लइ नीसासु ॥