पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१७२

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पुरानी हिंदी १७१ घाइत सदेसे से, क्या, तुम्हारे से, जो, सग से, न, मिलीज, स्वप्नातर मे, पिए (हुए) से, पानी से, पिय ! प्यास, क्या छीजे? केवल सदेश से क्या? (१५६ एतहे तेत्तहे वारि धरि लच्छि विसण्ठूल पिअपभव्व गोरडी निच्चल कहिवि न ठाइ ।। इधर तिघर, द्वार (और ) घर मे, लक्ष्मी, विनम्थुल, घाय (-दौड़ी फिरती है), प्रिय प्रभ्रष्ट, इव, गोरी, निश्चल, कही भी, म, ठवें (स्थित होती, टिकती है) । लक्ष्मी की चचलता को वियोगिनी की बौखलाहट से उपमा । वारि घरि-घर द्वार, घर वार, पन्भट्ट-प्रभ्रष्ट (सं०) भटकी, चूकी । ( १५७) एउ गृण्हेप्पिए 4 मई जई उि उन्वारिज्जइ । महु करिएन्दउँ किपि गवि मरिए व्वउँ पर देज्जइ ।। यह, ग्रहण करके, जो, मै', ( = मुझसे ) यदि, पिव, उवारा जाय, (तो) मेरा, कर्तव्य, कुछ भी नही, (रहे) मरना, पर, दिया जाय । यदि यह लेकर मेरे पिग का उद्धार हो जाय तो मेरा कर्तव्य कोई वाकी नहीं रहता मैं चाहे अपना मरण दे हूँ ( मरण भी सह लू । । दोधकवृत्ति के अनुसार 'किसी सिद्ध पुरुष ने विद्यासिद्धि के लिये धन प्रादि देकर नायिका से बदले में पति मांगा तो वह कहती हैं कि यदि यह लेकर पति उद्धर्त्यते- त्यज्यते-बदले मे दिया जाय तो मेरा कर्तव्य कुछ नही है केवल मरना दे सकती हूँ' (चाहे मेरे प्राण ले लो पति को न दूंगी) गृण्हेप्पिण- पूर्वकालिक, ध्र-देखो (४१), उब्वारिज्जइ (१) उवारा जाय, (२) बटाया जाय ? देखो ऊपर टीका, करिएव्बउ, मरिएव्वउ-करवी, मरबो (राज.), कर, मरवु (गुजराती), कर्तव्य, मर्तव्य (स.) । । १५८ ) देसुच्चाडणु सिहिकढण, धणकुट्टणु ज लोइ। मजिठ्ठए अइरत्तिए सब तहेवउ होइ ।। देश (से ) उचाटा जाना, शिखि (प्राग) पर काटना (काढा जाना), घना कुटना, जो लोक मे (अति दुखदायक भयकर दड है वे ) मंजीर ने, -