पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/८१

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'७८ पुरानी हिंदी जिससे, कुलक्रम, उलाँधा जाता है (और) अपजस, पसरता, है, लोक में उस (को) बहुत सपत्ति उपजानेवाले (काम) को भी, न, करता है, पडित कोई । गुरु-रिद्धि-निबधण = गुरु + ऋद्धि + निवधन (ला बाँधनेवाला)। (३३) ज मरणु मूढह माणुसह वछइ दुल्लह वत्यु । त ससि-मडल-गहण किहि गयरिण पसारइ हत्यु ।। जो, मन, मूढ (का), मनुष्य का, वाछा करता है, दुर्लभ वस्तु को तो शशिमडल-ग्रहण (के लिये ) क्या, गगन मे, पसारता है, हाथ । ( ३४ ) रावरण जायड जहि दिवहि दह मुह एक्क सरीरु । चिताविय तइयहि जणणि कवण पियावउ खीरु ॥ शखपुर के राजा पुरदर के यहाँ एक सरस्वती कुटुव आया, राजा ने इस दोहे का चीथा चरण 'पुत्र माता' से समस्या की तरह पूछा, उसने पूर्ति की। प्रबधचितामणि मे सरस्वती कुटुब भोज के यहाँ पाया है वहाँ भी यह समस्या गृहपत्नी ने यो हो पूर्ण की है। इसका अर्थ यही है कि दोहा पुराना है, कथालेखक इसकी रचना किसी भी राजा की सभा पर चिपका देते हैं। प्रयचिंतामणिवाले लेख में इसका और अगले दोहे का अर्थ और पाठातर देखो (पनिका भाग २ पृ० ४५, स० १२) । रावण जाया (जन्मा), जिस (मे), दिन मे, दस-मुख, एक शरीर। चितित किया, तभी जननी (को), किस (को) पियाऊँ क्षीर ( = दूध) चिंताविय-चिंतापिता ( ! ) स० 'प' के लिये देखो ना० प्र० पत्रिका भाग १, पृ० ५०७। (३५) पुन की घरवाली ने यह समस्यापूर्ति की-- इउ अच्चभुउ दि मई 'कठि व लुल्लइ काउ' । कीइवि विरह - करालियहे उड्डाविया वराउ ॥ यह दोहा हेमचद्र में भी है । यह, अत्यद्भुत, दीठा ( देखा ) में (ने), कठ मे, लगा जाय, किसके, किसी भी, विरहकरालिता ने, उड़ा दिया, वराक (बेचारा) (पति)। इ3 = यो। ?