पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/८७

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८४ पुरानी हिंदी ?" है, सशक, जिसकी नयन काति ( से ) जित, लज्जाभर से, वनवास ( को ) प्रपन्न हुए मानो हरिण । दसइ-देखो (१) ( ४७ ) नदु जपइ परकद कह एस वररुइ सुकई कहइ मति मह धूय सत्त वि एयाड कव्वाइ पहु पढइ वालाउ हुत वि तत्थ तुम्ह नरनाह जइ मरिण वट्टइ सनी ताल पढतिय कोरगेण ता तुम्हे निसुरणेहु ॥ ३२॥ नद, कहता है, 'पढे, परकाव्य, कैसे, यह वररुचि, सुकवि कहै, मनी 'मेरी, बेटियाँ, सातो, ही इन्ही (को), काव्यो को, प्रभु ! पढ़, वाला होती हुई भी; वहाँ तुम्हें, नरनाथ, यदि, मन मे, वर्तता ( है ) सदेह, वे, पढती हुई, कौतुक से, उन्हें, तुम सुनो। कन्यानो मे पहली एक बार सुनकर दूसरी दो बार यो सातवी सात बार सुनकर श्लोक कठस्थ कर लेती थी । वररुचि ने नया श्लोक पढा कि पहली ने पढ दिया। यो दो वार सुनकर दूसरी ने इत्यादि । फिर नद ने कुपित होकर वररुचि को निकाल दिया। (४८) खिविवि समिहिं सलिल दीरणार गोसग्गि सुरसरि थुण हराइ जतसचारु पाइए उच्छिलिवि ते वि वररुइहि चडहि हत्थि तेण घाइण । लोउ पइपइ वररुइह गग पसन्निय देइ । मुरिणवि नद बुत्ततु इहु सयडालस्स कहेड ॥ ३५॥ फेककर मध्या को, जल मे, दीनार, सबेरे, ( वररुचि ) गंगा को (= को) स्तुति करता है (और) हनता है (दबाता है) यंत्र संचार को पांव से; उछलकर, वे, भी, वररचि के, चढते है, हाथ मे, उससे, घात से, लोग, कहते हैं (कि) वररुचि को, गंगा प्रसन्न होकर, देती है; जानकर,