पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/११२

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सोने का डंडा और पौंडा देखने में सुवर्ण दंड ही सुंदर है। ताय देखो, सुलाख देखो तो स्वर्ण दंड हो अपनी खराई दिखलायेगा। बनाने और बनवाने, लेने तथा ताकने में उसके बड़ी कारीगरी, बड़ा खर्च, बड़ी शोभा और बड़ी चिंता का काम है। पर हम पूछते हैं, जो पुरुष भूखा है, जो भूख के मारे चाहता है कुछ ही मिल जाय तो आत्म शांति हो, उस्के लिए वह हंडा किस काम है ? कदाचित एक बालक भी कह देगा कि कौड़ी काम का नहीं । यदि उसको बेंचने जाय तो खरीदार मिलना मुशकिल है। साधारण लोग कहेंगे, कहां का दरिद्र एकदम से आ गया जो घर की चीजें बेचे डालते हैं। कोई कहेगा, कहां से उड़ा लाए ? इत्यादि । सच तो यह है, जो कोई ऐसा ही शौकीन, आँख का अंधा गांठ का पूरा, मिलेगा तो ले लेगा। परंतु क्या भूखी आत्मा को इतने की कल है कि स्वर्णदंड से परंपरा द्वारा भी अपना जी समझा सके ? कदापि नहीं। इधर पौंडे को देखिए । देखने में संदरता व असंदरता का नाम नहीं। परीक्षा का काम नहीं। लड़का भी जानता है कि मिठाइयों भर का बाप है । बनाने और बनवाने वाला संसार से परे है । ले के चलने में कोई शोभा है न अशोभा । ताकने में कोई बड़ा खटखट तो नहीं है । पहरा चौकी, जागना जूगना कुछ भी न चाहिए । पर कोई ताकने की आवश्यकता हो क्या है ? जहां तक बिचारिए यही पाइएगा कि जितनी स्वर्णदंड के संबंध में आपत्तियाँ हैं उससे कहीं चढ़ी बढ़ो इक्षु दंड के साथ निरद्वन्दता है, विशेषतः क्षुधाक्लांत के लिए । वह ततक्षण शांतिदाता ही नहीं, बरंच पुष्टिकारक, सुस्वादप्रद भी है । पाठक महोदय, जैसे इस दृश्यमान संसार में स्वर्णदंड और इक्षुदंड की दशा देखते हो ऐसे ही हमारी आत्मसृष्टि में ज्ञान और प्रेम है। दुनिया में बाहिरी चमक दमक ज्ञान की बड़ी है । शास्त्रार्थों की कसौटी पर उसके खूब जौहर खिलते हैं। संसारगामिनी बुद्धि ने उस्के बनाने में बड़ी कारीगरी दिखलाई है। पांडित्याभिमान और महात्मापन की शान उससे बड़ी शोभा पाती है। इससे हद है कि एक अपावन शरीरधारी, सर्वथा असमर्थ, अन्न का कीड़ा, रोग शोकादि का लतमद, मनुष्य उसके कारण अपने को माक्षात् ब्रह्म समझने लगता है। इससे अधिक ऊपरी महत्व और क्या चाहिए ? पर जिन धन्य जनो का. आत्मा धर्म स्वादु की क्षुधा से लालायित हो रही है, जिनके हृदय, नेत्र, हरिदरशन के प्यासे हैं, उनकी क्या इतने से तृप्ति हो जायगी कि शस्त्रों में ईश्वर ऐसा लिखा है ? जीवन का यह कर्तव्य है, इस कर्म का यह फल है, इत्यादि से आत्मा शांत हो जायगी? हम तो जानते हैं शांति के बदले यह विचार और उलटी घबराहट पैदा करेगा कि हाय, हमें यह कर्तव्य था पर इन २ कारणों से न कर सके । अब हम कैसे क्या करेंगे । यदि यह भयानक लहरें जी में उठी, तो जन्म भर कर्मकांड और उपासना कांड के झगड़ों से छुट्टी नहीं और जो न उठी, तो मानो आत्मा निरी निरजीव है। भूख का बिलकुल न