पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/११४

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[प्रतापनारायण-ग्रंथावली चरित्र सुन के खिलअत बख्श देंगे जो तारीख में समय की हत्या की जाती है ? साधा- रण नौकर को लिखना पढ़ना, बोलना चालना, हिसाब किताब, बहुत है । मिडिल वाले कोई प्रोफेसर तो होते ही नहीं। इन बेचारे पेटार्थियों को विद्या के बड़े २ विषयों में श्रम कराना मानों चीटी पर हाथी का हौदा रखना है । बिचारे अपने धंधे से भी गए, बड़े विद्वान भी न भए । मिडिल शब्द का अर्थ ही है अधबिच, अर्थात् आधे सरग त्रिशंकु की भांति लटके रहो, न इत के न उत के ! इससे तो सर्कार की मंशा यही पाई जाती है कि हिंदुस्तानी लोग नौकरी की आशा छोड़ें, पर इन गुलामी के आदियों को समझाये कौन ? यदि प्रत्येक जाति के लोग अपने संतान को सबके पहिले निज व्यापार सिखलाया करें तो वे नौकरीपेशों से फिर भी अच्छे रहें। इधर नौकरों की कमी रहने से सरकार भी यह हठ छोड़ बैठे । जिनको स्यानेपन में पढ़ने की रुचि होगी वे क्या और धंधा करते हुए विद्या नहीं सीख सकते ? पर कौन सुनता है कि "व्यापारे वसति लक्ष्मी" । यहाँ तो बाबूगीरी के लती भाई कुछ हो, अपनी चाल न छोड़ेंगे। भगवति विद्ये ! तुम क्या केवल सेवा ही कराने को हो ? हम तो सुनते हैं, तुम्हारे अधिकारी पूजनीय होते थे ! अस्तु, है सो अच्छा ही है। अभागे देश का एक यही लक्षण क्यों रह जाय कि सेवा वृत्ति में भी बाधा ! न जाने हर साल खेप की खेप तयार होती है, इन्हें इतनी नौकरी कहां से आवेगी ? सरकार हमारी सलाह माने तो एक और कोई मिडिल पास की पख निकाल दे, जिसके बिना बहरागीरी, खानसाभा- गीरी, ग्रासकटगीरी आदि भी न मिले । देखें तो कब तक नौकरी के पीछे सत्ती होते हैं ! अरे बाबा यदि कमाने ही पर कमर बांधी है तो घर का काम काटता है ? क्या हाथ के कारीगर और चार पैसे के मजूर, दस पंद्रह का महीना भी नहीं पैदा करते ? क्या ऐसे को बाबुओं के से कपड़े पहिनना मना है ? बरंच देश का बड़ा हित इसी में है कि सैकड़ों तरह का काम सीखो। सरटीफिकट लिए बंगले २ मारे २ फिरने में क्या धरा है जो सरकार को हर साल इमतिहान अधिक कठिन करने की चिंता में फंसाते हो । बाबूगीरी कोई स्वर्णगीरी (सोने का पहाड़) नहीं है। पास होने पर भी सिफारिश चाहिए तब नौकरी मिलेगी और यह कोई नियम नहीं है कि मिडिल वाले नौकरी से बरखास्त न होते हों, वा उन्हें बिना फिक्र नौकरी मिल ही रहती हो । क्यों उतना ही श्रम और काम में नहीं करते ? खं० ४, सं० २ ( १५ सितंबर, ह० सं० ३)