पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१५०

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

१२८ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली बातों को बिना समझे वा समझ बूझ के अपने विचार शक्ति का खून करके उनका पछलगा न बन जाना ही बौखलाहट है तो और बात है, नहीं तो आ० त• को हमारी बौखलाहट का कोई उदाहरण देना था। और सुनिए जैसे १८.७ का गदर मेरठ से शुरू हुआ था वैसे कांग्रेस की भी शकररंजी ( झमेल ) वहीं से शुरू हुई ।" तीन बरस से कांग्रेस होती है, कभी शकररंजी न हुई केवल अब को बेर सर सैयद अहमद साहब के बहकाने से कुछ नासमझ लोग कांग्रेस के सहायकों से वैमनस्य मानते हैं । पर उस एकतरफी वैमनस्य को सन् ५१ के गदर से उपमा देना निगे बौखलाहट है। हम हिन्दू मुसलमानों के सामने सैयद साहब के अनुगामो बहुत ही थोड़े हैं। तिसर भी जिन्हें कांग्रेस से कुछ सम्बंध है वे नेवरियों की गालियां तक सुन के चुप रहने और मधुर उत्तर देने का इरादा किए हैं, फिर ५७ को याद करना हम नहीं जानते क्या गुप्त अर्थ रखता है ? यह तो एडिटोरियल नोट का हाल हुआ, अब २१ एप्रिल को श्रीयुत पंडितबर अयो- ध्यानाथ वकील महोदय ने नाच घर में कांग्रेस सम्बन्धी लेक्चर दिया था, उस्पर मियाँ आलम तसबोर फरमाते हैं, 'मुसलमान शायद दश से कुछ ही जियादा थे' । शायद अपनी या अपने आगे पीछे की कुरसी की गिनती की है, नहीं मुमलमान बेशक सौ के लगभग थे, पर कांग्रेस के विरोधी दस भी न थे । जाहिरा केवल तीन थे, शायद दो एक गुप्त भी हों । आगे चलिए । 'अनुमान दो सौ आदमी जमा थे'। वाह ! ऐनक लगाने पर भी यह हाल ! इसके आगे श्री पडित जी के परमोत्तम हृदयग्राही लेक्चर पर खूब उखाड़ पछाड़ की है जिसका उनर देना निरा समय खोना है। बुद्धिमान इतने ही से विचार सकते हैं कि कांग्रेस के विरोधी सत्य को कहां तक आदर देते हैं। उन्हीं के एक पत्र प्रेरक, जो लखनऊ के हैं, इस पर तो बिगड़ते हैं कि उक्त पंडित जी ने २० ता० को लेक्चर दिया, उसमें कुरआन को आयतें पढ़ी । पर इसका बयान उड़ाए जाते हैं कि एक मुसलमान ने भरी भीड़ में बुरी तरह पर गायत्री पढ़ी। यदि नियत देखी जाय तो पं० जी ने केवल एकता की पुष्टि के लिए कुरान शरीफ का प्रमाण दिया था। इसमें यदि श्री मुहम्मदीय धर्म की अप्रतिष्ठा होतो तो शेष रजाहुसेन खां साहब (जो उस दिन सभापति पे) और 'अवध पंच' के एडिटर मुंशी सम्बाद हुसेन सा० इत्यादि सज्जन जो वहां बैठे थे अवश्य अप्रसन्न होते, क्योंकि वे भी मुसलमान ही हैं। पर शायद कांग्रेस के विरोधी कांग्रेस के अनुकूल मुसलमानों को मुसलमान नहीं समझते। क्या आलमे तसबीर इसी पर कहता है कि 'मुसलमानोंने हिन्द ने ने• कां० की मुखालफत में निहायत इत्तिफाक जाहिर किया ।' परमेश्वर ऐसे अनक्यबद्ध'कों को सुमति दे जो निज धर्म ग्रन्थ के वचन कोई प्रमाणार्थ कहें तो भी अपनी तौहीने मजहबी समझते हैं और दूसरों के धर्म वाक्य को खुद जलन के साथ कहने में नहीं लजाते । ऊपर से राजा प्रजा दोनों का हित चाहने वालों को दोष लगाते हैं, पर स्वयं न्यायशील ब्रिटिश सिंह के राज्य में अपने 'सुस्त और कमजोर हाथों से काम लेना' चिताते हैं । न जाने इसमें क्या लोक या परलोक का लाभ समझे हैं। खं०४, सं० १० ( १५ मई ह० सं०४)