[प्रतापनारायण-ग्रंपावली बदा का प्रभाव, लुप्तप्राय हो गया है। केवल नाम का प्रभाव रह गया है, अर्थात सरल चित्त से प्रेम के साथ परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थमा, ध्यान करने वाले कदाचित लाखों में एक भी न मिले पर सुख से रामा रामा कहने वाले हजारों देख लीजिये । घंटों लेकचर दे के वेद, पुराण, कुरान, इंजील को चर डालने वाले हजारों ले लीजिये । यदि आप को यह शंका हो कि उपरोक्त वाक्य के अमरार्थ से केवल नाम प्रभाव निकलता है, भगवान के नाम का वर्णन कहां है, तो हमें क्या दुनियां भरे के नाम लेते जाइये, वास्तविक अर्थ शायद कही न पाइएगा । पण्डित का अर्थ है सत और असत का विवेक करने वाला, पर बतलाइये तो इन ढीली धोती और चौड़ी पगड़ी वालों में के जने हैं जो सदा सत्यासत्य ही के निर्णय में लगे रहते हैं । ब्राह्मण का अर्थ है वेद और ईश्वर को जानने वाला, पर कहिये तो के जने आप ने देखे हैं जो त्रिवेदी कहा के गायत्री अच्छी तरह जानते हैं, औ के जने नोन तेल की चिता का शतांश भी उस नित्य स्मरणीय की चिंता रखते हैं। कितने वैश्य हैं जो दूसरे देश से कभी सौ रुपये भी कमाय लाए हों ? कितने अमीर हैं जो मुंदी भलमंसी लिए न बैठे हों ? कितने मित्र हैं जो काम पड़ने पर कटी उगली पर मूतने का भी दृढ़ संकल्प किए बैठे हैं। कितनी स्त्रियां हैं जो चौराहे की ईट के बराबर भी पति की प्रतिष्ठा करती हों ? कितने उपदेशक हैं जिनके चरित्र अपने बचनों के षोड़शांश भी मिलते हों। कितने राजा हैं जो प्रजा के हितार्थ निज स्वार्थ को दमड़ी भर भी त्याग सकें ? कितने देश हितैषी हैं जो अपना धन मान प्रतिष्ठा देश के लिये वार दें ? परमेश्वर करे किसी का भरमाला न खुले नहीं तो घर घर मिट्टी के चूल्हे हैं। यह कलियुग का जमाना है। वास्तव में कहीं कुछ नंत है नहीं। सब किसी का नाम ही सन लीजिये, क्योकि महात्माओं का वचन झूठ नही होता, और वे कहि चुके हैं कि 'कलि महं केवल नाम प्रभाऊ ।' खं० ५ सं० १ (१५ अगस्त ह। सं४) कानपुर और नाटक अनुमान १२ वर्ष हुए कि यहां के हिन्दुस्तानी भाई यह भी न जानते थे कि नाटक किस चिड़िया का नाम है। पहिले पहल श्रीयुत पण्डितवर राम नारायण त्रिपाठी (प्रभाकर महोदय ) ने हमारे प्रेमाचार्य का बनाया हुवा 'सत्य हरिश्चन्द्र' और 'वैदिको हिंसा' खेला था! यह बात कानपुर के इतिहास में स्मरणीय रहेगी कि नाटक के अभिनय के मूलारोपक यही प्रभाकर जी हैं, और श्रीयुत बिहारीलाल जी परोपकारी उनके बड़े भारी सहायक हैं ! यद्यपि द्वेषियों ने बहुत शिर उठाया, और लना के साथ प्रकाश करना पड़ता है कि इस पत्र का सम्पादक भी उन्हीं में से एक था, पर उस देशाभिमान रूपी आकाश के प्रभाकर ने परम धीरता के साथ अपना संकल्प न छोड़ा।
पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१६४
दिखावट