पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१६६

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कनौज में तीन दिन गत मास में श्री स्वामी भास्करानंद जी के साथ तीन दिन के लिए कनौज जाना पड़ा था। यद्यपि कलकत्ता, बंबई, मद्रास सब मंझाए बैठे हैं, पर यह नगर हमारा मुख्य नगर है। हम किसी दशा में, कही क्यों न हों पर कनौजिया हैं। हम कान्यकुब्ज हैं तो फिर कान्यकुब्जपुर से ममता क्यों न रखें। यदि जात्याभिमान कोई वस्तु है तो हम यह कहने से नहीं रुक सकते कि कनौज हमारा है हम कनोज के । किसी समय हमारे पूर्वज विश्वामित्र बाबा, कश्यप शांडिल्य भरद्वाजादि बाबा जगत के शिरोमणि थे। वे इसी कान्यकुब्ज नगर रूपा खानि के रत्न थे। हम इन दिनों दुनिया के करा करकट हैं तो भी इसी धूरे के करकट हैं जिसका नाम कनौज है । यद्यपि अदृष्ट के पवन ने हमें इधर उधर फेंक दिया है पर हमारे दिमाग से कनौज की बू कहाँ जाती है। इन भारत के गिरे दिनों में भी कनौज का इत्र (अतर) दूर २ सराहा जाता है, फिर कनौज की बू हमारे दिमाग से कैसे दूर हो । बरसों पीछे जो कोई अपने नगर में आता है उसको हर्ष अवश्य होता है एवं अपने आत्मीय को दुर्दशाग्रस्त देख के शोक भी होता है। फिर कनोज जात्रा में हमको हर्ष शोक क्यों न होता। हम आशा करते हैं कि हमारे पाठकगण इस जात्रा का वृतांत पढ़ के मनोरंजन के अतिरिक्त कई एक उपदेश भी ग्रहण करेंगे। हमारे प्रिय मित्र हरिशंकर बर्मा एवं श्यामसुंदर बर्मा तथा कबिबर गदाधर के कारण रेल के तीन घंटे तो ऐसे आनंद से बीते कि मीरासराय स्टेशन पर उतरने को जी न चाहता था। वह मार्ग में हरियाली का दृश्य, जल की वृष्टि,कविता की छटा, वारों का जमघटा, हम तो हमी हैं अन्य जात्रियों को भी मस्त कर रहा था। रेल से उतरे तो इक्कों पर चढ़े। डाक्टर श्री दुबरीप्रसाद जी से भेंट कर आगे बढ़े। कुछ ही दूर चल के कनौज के खंडहर शुरू हुए जिन्हें देख के अनुराग ओ विराग ने हृदयांगण में द्वन्द्व युद्ध मचाया। कभी तरंग आती थी। धन्य यह अवसर कि पुरखां की पुन्य भूमि का दर्शन हो रहा है। कभी यह छंद स्मरण होने से कि 'जलता है आज क्या खसो खाशाक में मिला, वुह गुल जो एक उम्र चमन का चिराग था। गजरू हैं जिम खराये में कहते हैं वांके लोग । है चंद दिन की बात यह घर था यह बाग था।' संसार से जो हट जाता था। जब मुख्य नगर में आए तो धर्म शगवान ने कहा, तीर्थ में सवारो पर न चलो । प्रेमदेव ने कहा, यह तो महातीर्थ है । यहाँ बे अदबी २ बस उतरे। उस पुन्य भूमि की धूलि मस्तक पर धारण कर प्रसन्नतापूर्वक मित्रो से संलाप करते फर्श नामक मुहल्ले मे आ पहुंचे जहां ठहरना था । प्रियंवर स्यामसुंदर का स्थान खाने पीने उठने बैठने सोने जागने का सब दिव्य सामान । यहां के सुख का क्या कहना। ऊपर से श्री मास्टर देवीदीन जी आर्य की धर्मनिष्ठता एवं दृढ़चित्तता, डाक्टर दुबरीप्रसाद जी को उद्योगशीलता, श्रीयुत बाबू विश्वेश्वरनाथ की सहृदयता,