पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१८१

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खुशामद यद्यपि यह शब्द फारसी का है पर हमारी भाषा में इतना घुलमिल गया है कि इसके ठीक भाव का बोधक कोई हिन्दी का शब्द ढूंढ लावे तो हम उसे बड़ा मर्द गिर्ने । 'मिथ्या प्रशंसा' 'ठकुरसुहाती' इत्यादि शब्द गढ़े हुए हैं। इनमें वुह बात ही नहीं पाई जाती जो इस मजेदार मोहनी मंत्र में है। कारण इसका यह जान पड़ता है हमारे पुगने लोग सीधे, सच्चे, निष्कपट होते रहे हैं। उन्हें इस का काम बहुत कम पड़ता था। फिर ऐसे शब्द के व्यवहार का प्रयोजन क्या ? जब से गुलाब का फूल, ... ... ... उरद की शोरी जबान इत्यादि का प्रचार हुवा तभी से इस करामाती लटके का भी जौहर खुला । आहाहा ! क्या कहना है ! हुजूर खुश हो जायं और बंदे को आमद हो। यारों के गुलछरें उनें। फिर इसके बराबर सिद्धि और काहे में है ? आप चाहे जैसे कड़े मिजाज हों, रुक्रबड़ हों, मक्वीन्स हों, जहां हम चार दिन झुक झुक के सलाम करेंगे, दौड़ २ आपके यहाँ आवैगे, आपकी हां में हाँ मिलावेगे, आपको इन्द्र, वरुण, हातिम, करण, सुर्य, चंद्र, लैली, शीरी इत्यादि बनावेंगे, आपको जमीन पर से उठा के झंडे पर चढावेंगे, फिर बतलाइए तो आप कब तक राह पर न आवेंगे? हम चाहे जैसे निर्बुद्धि, निकम्मे, अविद्वान, अकुलीन क्यों न हों, पर यदि हम लोकलज्जा, परलोक भय, सबको तिलांजुली दे के आपही को अपना पिता, राजा, गुरु, पति, अन्नदाता कहते रहेंगे तो इसमें कुछ मौन मेख नहीं है कि आप हमें अपनावेंगे और हमारे दुख दरिद्र मिटावेंगे। अजी साहब, आप तो आप ही हैं, हम दीनानाथ, दीनबंधु, पतितपावन कह २ के ईश्वर तक को फुसला लेने का दावा रखते हैं, दूसरे किस खेत की मूली है। खुशामद वुह चीज है कि पत्थर को मोम बनाती है। बैल को दुह के दूध निकालती है। विशेषतः दुनियादार, स्वार्थपरायण, उदरंभर लोगों के लिये इससे बढ़ के कोई रसायन ही नहीं है । जिसे यह चतुराक्षरी मंत्र न आया उसकी चतुरता पर छार है, विद्या पर धिकार है। कोई कैसा ही सब्बन, सुशील, सहृदय, निर्दोष, न्यायशील, नम्रस्वभाव, उदार, सदगुणागार. साक्षात् सतयुग का औतार क्यों न हों पर खुशामद न जानता हो तो इस जमाने में तो उसकी मट्टी स्वार है, मरने के पीछे चाहे भले ही ध्रुवजी के मुकुट का मणि बनाया जाय । और जो खुशामद से रीमता न हो उसे भी हम मनुष्य नहीं कह सकते । पत्थर का टुकड़ा, सूखे काठ का कुंदा या परमयोगी, महावैरागी कहेंगे । एक कवि का वाक्य है कि, "बार पचै माछी पर्च पत्थर हूँ पचि जाय, जाहि खुशामद पचि गई ताते कछु न बसाय' । सच है खुशामदी लोगों की बातें और घातें हो ऐसी होती हैं कि बड़े बड़ों को लुभा लेती हैं। सब जानते हैं कि यह अपने मतलब की कह रहा है, पर लच्छेदार बातों के मायाजाल में फंस बहुधा सभी जाते हैं। क्यों नहीं! एक लेखे