पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१८७

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आल्हा आलाद रसिकों के लिए संसार रसमय है अतः हम दिखाया चाहते हैं कि आल्हा में भी क्या मधुर रस है । जिस छंद में आल्हा गाया जाता है वुह यद्यपि किसो प्रसिद्ध पिंगल में हमने नहीं देखा पर अनेक विद्वानों का मत है कि वह कड़खा छंद है जिसका प्रस्तार यों है कि पहिली यदि १६ मात्रा पर होतो है दूसरी १५ पर और अन्त का अक्षर अवश्य लघु एवं उसके पहिले का एक अवश्य गुरु हो । मात्रा छंद होने से कुछ अधिक बन्धन नहीं है । युद्ध में वोरों को उत्साह दिलानेवाले गोतों को कड़वा कहते हैं। और आल्हा में विशेषतः बोरों ही का वर्णन होता है। कहते भी मंगलाचरण ( संवरनी ) में हैं कि 'बीर पंवारो मैं गावत हौं भूले अच्छर देव बताय'। इसी मूल पर छन्द का नाम भी कडखा गड गया है, नहीं कड़खा छन्द का रूप और है और आल्हा ( कदाचित यह नाम अल्हन सिंह हो ) का चरित्र हो इस छन्द मे बहुवा गाया जाता है अतः इस गीत को भी आल्हा कहते हैं गिन दिनों इस देश में मुसलमानों का आना लगातार आरम्भ हुवा था,हिन्दुओं में आपस का विरोध फैला हुवा था, दिल्ली में पृथ्वीराज अर्थात् पिथौरा, कनौज में जय चन्द ( कनौजी) राज करते थे वही आल्हा के जन्म मरण का समय था। इनके पिता देशराज, माता देवकुमारी ( देखें ) यो। महोबे के चन्द्रवंशी राजा प्रमल्ल (परिमाल ) के यह सेनापतियों में थे। यह घोर उपद्रव के समय में थे और परिमाल भीरु राजा था इससे इनके जोवन का अधिक अंश लड़ाई भिड़ाई में बीता था। यह एक चतुर और नीतिज्ञ पुरुष थे और इनके छोटे भाई उदयमिह वोर स्वभाव के थे । इतिहास आल्हा में इतना ही है। पर आल्हा का पंवारा ( गाउ) एक ऐसी अकृत्रिम ग्राम भाषा मे और ऐसे सरल और हृदयग्राही भाव में होता है कि मूर्ख और बुद्धिमान सभों को प्रिय है। जिस टाइम के लोग संस्कृत न जानने पर भी भाषा कविता के निन्दक होते हैं ।बाजे २ बज मूर्ख भाषा में होने के कारण रामायण और सतसई को भी तुच्छ समझते हैं ) ऐसे हो बहुत से पुराने ढंग के मुंगो यद्यपि फारसो कुछ ही जानते हैं पर उरद को निंदनीय हो कहते हैं । सिवा ऐसों के और जिसने घंटे दो घंटे आल्हा सुना होगा वुह प्रशंसा हो करेगा यदि ग्राम्य भाषा समझता हो, कोंकि कानपुर, फतेह. पुर, बांदा, फरुवाबाद के जिले को ग्राम्य भाषा स्वभावतः ऐसो मधुर होतो है कि बज. भाषा की कविता में मिला देने से खड़ी बोली की तरह निरस नहीं जंचती।। हमें जहां तक स्मरण है वहां तक कहेंगे कि समाचारपत्रों में हमारे पूर्व शायद इस गान को किसी ने स्यान नहीं दिया। पर यह कविता रसास्वादियों के अनुकूल समझ के जब हमने 'ब्राह्मग' में आल्हा लिखा तो किसो सहृदय को निस्वादु नहीं जंचा प्रत्युत हमारे माननीय पंडिसवर रामप्रसादजो विपाठो, जो प्रयाग के एकमात्र भूषण है, उन्होंने