पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२१९

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एक] बिचारिएगा कभी न विचार सकिएगा। यदि किसी एक पदार्थ को अनेक भागों में विभक्त कर डालिए तो उसका नाम रूप गुण कुछ भी न रहेगा। सौ रूपए का लेप है, यदि उसके प्रत्येक अवयव को अलग २ कर दीजिए तो किसी अंग का नाम चिमनी है, किसी खंड का नाम कुप्पी है, कोई भाग बत्ती कहलाता है, कोई तेल बोला जाता है । ल्यंप कहाने के योग्य कोई अंश न रहेगा । वह सुंदरता भी जाती रहेगी। एक टुकड़ा कांच किसी चिलम सा है, एक चपटा गोला सा है। बत्ती अलग लत्ता सी पड़ी है, तेल अलग, दुखियों के से आंसू बहा २ फिरता है। मुख्य काम अर्थात् अंधकार मिटाना तो सर्वथा असंभव है। यदि एक २ अवयव को भी अनेक खंड कर डालिए तो और भी दुर्दशा है । जिसे महफिल की शोभा समझते थे वुह राह में फेंकने योग्य भी न रहेगा ( ऐसा न हो किसी को गड़ जाय ) और आगे बढ़िए तो धूल ही हाथ लगेगी। इस छोटे से उदाहरण को सामने रख के संसार भरे की वस्तुओं को देख जाइए,यही पाइएगा कि एक का अनेक होना ही नाश का हेतु है । इसके विरुद्ध छोटे से छोटा राई का दाना और बड़े से बड़ा पर्वत अपनी बोली में यही कह रहा है कि अनेक परमाणुओं का एक हो जाना ही अस्तित्व की सफलता है ! एक की सामर्थ्य यह है कि एक ओ एक ग्यारह होते हैं । यदि देशकालादि को सहायता न पावै तो भी दोनों बने बनाए हैं ! उन एक और एक में एक और मिल जाय तो एक सौ ग्यारह हो जायगे अथवा इक्कीस तथा बारह नहीं तो हारै दरजे तीन तो हई। फिर न जाने आप एक को क्यो नहीं दृढ़ता से चाहते। असंख्य तक गिन जाइए अंत में यही निकलेगा कि सब एक को माया है । हमारे यहाँ पंचपरमेश्वर प्रसिद्ध है सो बहत ठीक है। पांच मनुष्य एक मत हो के जिस बात को करें उसे मानों सर्वशक्तिमान आप कर रहा है । ऐसा कोई काम नहीं है जो बहुतों की एकता से न हो सके। चारि जने चारिह दिशा से एकचित ह के मेरु को हलाय के उखारें तो उखरि जाय पर जिसके भाग सुख नहीं है उसके समझ में, एकता क्या है, कभी आवहीगा नहीं। समझ में भी आवैगा तो बर्ताव में लाना कठिन है। नहीं तो जमात से करामात होती है। आपके पास विद्या, बल, धन, बुटि कुछ भी न हो पर एका हो तो सब हो सकता है। वह देश धन्य है जहाँ एक्य की प्रतिष्ठा हो । बहत से लोग एक हो के पाप भी करें तो भी पुण्य फल पावैगे। बहुत लोग एक हो के मर जायें तो भी अनक्यदूषित जीवन से अच्छा है। एक का वर्णन एक मुंह से हम कहाँ तक करें। एक तो भगवान का नाम है-एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति और वह सर्वसामर्थी । फिर भला उसके किए क्या नहीं होता ? उसकी श्रीमुख आज्ञा है कि 'सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज'। शास्त्रार्थ की बड़ी गुजाइश है पर हम तो प्रत्यक्ष प्रमाण से कह सकते हैं कि आप एक हो के देख लीजिए कि सब कुछ हो सकता है या नहीं। पाठक ! क्या तुम्हें सदा 'ब्राह्मण' के मस्तक पर एक का चिह्न देख के उसका महत्त्व कुछ अनुभव होता है ? तो फिर क्यों नहीं सब झगड़े छोड़ के सत वित्त से एक की शरण होते ? क्यों नहीं एक होने और एक करने का प्रयत्न करते? सं० ५ सं० ११ (१५ जून १० सं०५)