पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२३०

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दान यदि इस शब्द को सुन के हमारे पाठकों का चित्त पानदान, पीकदान इत्यादि की ओर न चला जाय तो हम दिखलाया चाहते हैं कि हमारे महषियों ने इन दो अक्षरों में भी दोनों लोक की भलाई भर रखी है। यदि किसी को यह शंका हो कि (दकार) तो वर्णमाला भर में सबसे बुरा अक्षर है (यह बात ब्राह्मण के चौथे खंड की दूसरी संख्या में देखो ) फिर वुह शब्द जिसकी आदि में दकार ही है, क्यों कर अच्छा हो सकता है ? तो इनका सहज उत्तर यह है कि अंत मे जो नकार है वुह प्रायः सब भाषाओं में निषेध वाचक है । संस्कृत में न अथवा नहि, हिंदी में नही, फारसी में ने, अगरेजी में नो या नाट, सबका अर्थ एक ही है। इससे इस बात की सूचना होती है कि 'दान' में दकार की दुरूहता नहीं है। 'दान' शब्द में दकार केवल इसलिये रखी गई है कि अपने पास से किसो को कुछ देना पहिले तनिक अखरता है, नही तो वास्तव में दान कोई बुरी बात नहीं है। यह बात इस शब्द के अक्षरार्थ ही से प्रकाशित है, अर्थात् द (दुःख, दुस्सहपन, दुरूहता अदि) और न अर्थात् नहीं, भाव यह हुआ कि दान में कोई दोष नही है। मोटी बुद्धि वाले न समझें अथवा कपटपूर्ण विदेशी उसका अर्थ कुछ का कुछ समझावै तो और बात है, नही तो दान हैं बहत अच्छी बात । यह सब मत सब देश, सब काल के लोग मानते हैं कि धर्म को ईश्वर के साथ बड़ा भारी, बड़ा गहिरा, बड़ा घनिष्ठ संबंध है। क्योकि ईश्वर की दया प्राप्त करने के लिए सब महा- स्माओं ने धर्म करना बतलाया है। जिसे ईश्वर की भक्ति अथवा ईश्वरकृत जगत की प्रीति होती है वह सदा धर्म ही का आचरण किया करता है। उसी धर्म अथवा यों कहिए ईश्वर के परम मित्र के (हमारी पुराणों में लिखा है कि) चार चरण है-१- सत्य, २-शौच, पवित्रता, ३-दया, ४-दान । उनमें से एक २ युग में एक २ चरण टूट जाया करता है । सतयुग में सत्य, शौच, दया, दान सब विद्यमान थे पर तो भी सत्य का पूरा सन्मान था। श्री महाराज हरिश्चंद्र के चरित्र विदित है कि उन्होंने राजपाट, स्त्री, पुत्र सब त्याग दिया पर सत्य को न छोड़ा। त्रेता में धर्म के तीन ही चरण रह गए अर्थात् सत्य का प्राबल्य जाता रहा। महाराजा दशरथ ऐसे धर्मात्मा का मन श्री रामचंद्र की वनयात्रा के समय डावाडोल हो गया। यद्यपि कैकेयी जी से वचन हार चुके थे पर यह कभी न चाहते थे कि भगवान बन को चले जाये। जब ऐसों को यह दशा हुई तो दूसरों को सत्य का आग्रह क्या हो सकता था? हाँ, शौच को उस काल में अधिक भावर था। राम, लक्ष्मण, भरत, पत्रुघ्न, हनुमान आदिक जो उस समय भारत के मुकुट के महा अमूल्य रत्न थे, उनके चरित्र में हमारे देषी भी, चाहे कोटि दोष लगावें पर, अपवित्रता की गंधि नहीं बतला सको । छापर में केवल दो ही चरण रह गए । अर्थात् सत्य और शोषका बल इतना घट गया कि युधिष्ठिर ऐसे सत्यवादी