देय बस्तु २११ भरे के स्वामी हो जाते तो सेवा करने वाले (जिन से स्वामित्व की शोभा है) कहाँ से माते ? इससे यह प्रत्यक्ष है कि कहीं कोई एक महासामध्यवान पक्ति अथवा व्यक्ति है। ईश्वर, भाग्य, इत्तिफाक, चाहे जो मान लीजिए, उसी की इच्छा वा उसी के द्वारा हमें, जितना हमारे मिलने के योग्य है, मिलता है। फिर क्या, जब हम स्वयं दूसरे का पाते हैं तो देने में हिचिर मिचिर क्यों ? जबकि दूसरे की वस्तु दूसरे को देना है तो सोच ही विचार क्या? आखिर एक दिन हमारे हाथ से जाती रहेगी। फिर क्यों न अभी से उसका मोह छोड़ के सेंत मेंत में कोतिलाभ करलें । क्यों न सारे संसार एवं जगतकर्तार के मुख से-'भीख में से भीख दे, तीनों लोक जीत ले', कहलाने का उद्योग करें ? स्मरण रखिए, जो कुछ आपके पास है वुह यदि अपने काम ले आइए तो कोई बुराई नहीं है, पर भलाई भी क्या है ? हां, यदि अपने और यथासाध्य पराए कार्य में भी लगाते रहिए तो बुद्धिमानी है। पर यदि अपनी हानि करके भी पराया हित कर सकिए तो तो सच्ची कीर्ति के पात्र हो जाइएगा। लक्ष्मी जी (धन, बल, विद्यादि ) संसार में तीन रूप से विचरती हैं। किसी के यहाँ कन्या के रूप में जाती है, उसे निंदास्पद बनाती है। जो न अपने लिए उठाता है न औरों को देता है वुह सूम कहलाता है । अंत में दूसरे लोग उसका धन भोगते हैं, पर कुछ प्रशंसा नहीं करते । हमें आशा है 'ब्राह्मण' के रसिक अपनी लक्ष्मी से ऐसा बर्ताव न करते हैं न करेंगे । लक्ष्मीजी बहुतों के पास पत्नी स्वरूप से जाती है । अर्थात् जिसकी कहलाती हैं उसी के काम आती हैं, दूसरों से कुछ प्रयोजन नहीं। यद्यपि यह रीति बुरी नहीं हैं पर कोई उत्तमता भी नहीं है। हां, जिन के पास वेश्या बन के जाती हैं अर्थात् अपने पराए सबके सुख साधन में आती हैं वही उदार, यशो, जगत हितैषी कहलाता है। अतः बुद्धिमान को चाहिए कि परस्वारष के लिए प्राण तक दान कर दे। सबसे पहिले चाहिए कि इस बात पर दृष्टिदान करें कि दान वस्तु और दान का पात्र दोनों दान के योग्य है कि नहीं। यह विचार रखे बिना दान निष्फल है, बरंच बहुधा दुष्फल जनक हो जाना भी संभव है। हमने पुराने ढंग के लोगों से सुना है कि बाजे २ लोग तीर्थों के पंडों को स्त्री दान करते थे। उसे हम दान नहीं कहेंगे। वुह बिना सोचे विचारे धन और धर्म का सत्यानाश करना था। यदि किसी वेद अथवा शास्त्र में प्रत्यक्ष वा हेर फेर के साथ ऐसी आज्ञा भी हो तो माननी चाहिए । स्त्री का नाम अगिी इसलिए रखा गया है कि सांसारिक अथच परमार्थिक कामों में साथ दे सकती है। पर वुह कोई वस्तु अथवा पशु नहीं है कि जिसे चाहें उसे दे डालें। हो, जिसे हम हाथ पांव धन अन्नादि से सहाय दान करते हैं हमारी अर्नाग स्वाभिती भी करे, पर यह क्या है कि दानपात्र का कोई विशेष हित अथवा उसकी योग्यता देखे बिना 'ओम् विष्णुविष्णुः' कर दिया जाय । दान का मुख्य प्रयोजन यह है कि जिसे जिस बात की आवश्यकता हो और उस आवश्यकता के पूर्ण करने की सामर्थ्य न हो उसे यथोचित अथवा यथासामध्यं सहायता देना। इस दशा में भी यदि यह शंका हो कि लेने वाला ले के उचित रीति से काम में न लावेगा तो दान करना पाप है। बस, इस नियम पर दृष्टि रख के सदा
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