पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२४४

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मूलनास्ति कुतः शाखा हमारे अनेक देशभक्तगण अनेकानेक उत्तम विषयों के प्रचार के लिये हाय २ किया करते हैं । समाचार पत्रों के संपादक तथा संबाददाता और सभाओं के अधिष्ठाता एवं सभ्य सदा समाज संशोधन,राजनैतिक उद्बोधन,धर्म प्रचार,विद्या, सभ्यता, उद्योग एकतादि के संचार के लिये दिन रात उपाय किया करते हैं, पर हमारी समझ में पश्चिमोत्तर देश वालों की भलाई के लिये शिर पटकना निरा व्यर्थ है। सच पूछिये तो पशु और मनुष्य में बड़ा भारी भेद केवल भाषा का है। भय प्रीति क्रोधादि हार्दिक भाव पशु पक्षी भी अपने सजातियों को भलीभांति समझा लेते हैं। यदि इतनी ही विशेषता मनुष्य में भी हुई तो कोन विलक्षणता है ? भर्तृहरि जी के इस वाक्य में कोई संदेह नहीं है कि 'साहित्य संगीत कलाविहीनः साक्षात् पशुः पुच्छविषाणहीनः' । फारसी के विद्वान भी मानते हैं कि हैवाने नातिक-हैवाने मुतलक से केवल भाषा ही के कारण श्रेष्ठ होते हैं । उस भाषा का एतद्देशवासियों को कुछ भी ममत्व नहीं है। इसका बड़ा भारी प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि अंग्रेजी और उरदू ( जो यहाँ को भाषा न हैं न होंगी) के पत्रों की तो बड़ो २ पूंछ है, पर देवनागरी, जो त्रिकाल में इनकी भाषा है, और किसी बात में किसी बोली से न्यून नहीं बरंच हम तथा हमारे सहयोगी अनेक बार सिद्ध कर चुके हैं और काम पड़े तो दिखला सकते हैं कि सबसे सरल, सबसे सरस, तबसे शुद्ध होती है, उसका मोह तथा अभिमान करने वाले यदि हैं भी तो ऊंगलियों पर गिनने लायक, सो भी नितांत निस्सहाय एवं निरुत्साह । जिसने कोई समाचारपत्र चलाया होगा उसका जी ही जानता होगा। भला इस दशा में क्यों कर आशा हो सक्ती है कि इस देश के लोग कभी सुधरेंगे । कब कहां किस जाति ने अपनी भाषा का गौरव बढ़ाए बिना किसी बात में उन्नति की है ? कोई बतावे तो हम दृढ़तापूर्वक कहते हैं और कोई हठी हमारे विरुद्ध कुछ कहेगा तो प्रमाणित कर देंगे कि हिंदू समुदाय, हिंदी के स्वाग्राही, जब तक हिंदी की ममता एवं सहानुभूति में तन मन धन से सच्चे उत्साही न होंगे, देशी विदेशी प्राचीन नवीन सुलेखकों के समस्त भाव हिंदी में म भरेंगे, तब तक कभी किसी के किये कुछ न होगा। अभी तो वह इतना भी नहीं जानते कि हमारी: भाषा क्या है, कैसी है। उसके संबंध में हमें क्या कर्तव्य है, उसके द्वारा हमारा क्या हित हो सकता है तथा अपने हितैषियों के साथ हमें कैसा माचरण रखना चाहिये ? जब तक यह लोग इन बातों में पक्के न हो जाय तब तक अन्य बातों का उद्योग करना ऐसा है जैसे बिना जड़ के वृक्ष को सोच के फल की आशा करना । जिन महात्मा हरिश्चंद्र ने हिंदी और हिंदुओं के उद्धारार्थ अपना लाख का घर खाख कर दिया, परंच मरते २ भी हिंदोस्थान ही के अभ्युत्थान की चिंता करते २ लीला बिस्तार गरे, उनका तो अभागे हिंदुओं ने कुछ गुण ही न जाना, उनकी परमोत्तम पुस्तकों को तो कुछ आदर हो न किया, दूसरे