पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२७२

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रथयात्रा हमारे यहाँ प्रायः सभी बड़े २ नगरों में वैदिक और जैन लोग प्रति वर्ष नियत तिथियों पर श्री ठाकुर जी का रथ यथासामर्थ्य बड़ी धूमधाम से निकाला करते हैं । यह रीति कब से प्रवलित है इसका टीक पता कोई नहीं लगा सक्ता सिवा इसके कि यह कह दें, बहुत पुरानी रीति है । देशी इतिहास लेखक जो सृष्टि का आरंम अनुमान छः सहस्र वर्ष से समझते हैं वे ही ऐसी २ बातों के खोज में लगे रहे कि सुवर्ण पहिले २ कब निकला, क्योंकर निकला, किसने निकाला; शस्त्र पहिले पहिल किसने, किस प्रकार, कोंकर, कब बनाये, इत्यादि, पर हमें इन बातों के खोज की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि हम तो इसके मानने से इनकार नहीं कर सकते वरंच कोई वाद करने पर प्रस्तुत हो तो समझा सक्ते हैं कि जब से अनादि ईश्वर का अस्तित्व है तभी से उसके सृनन, पालन, प्रलयादि काम भी हैं। नहीं तो हमारी आस्तिकता में यह बड़ा भारी दोष आ लगेगा कि अमुक समय पर नित्यैकरस परमात्मा को अमुक सामर्थ्य न थे। इसी प्रकार हमारा इतिहास इस बात की कल्पना का मुहताज नहीं है कि सबसे पहिले ( यद्यपि समुद्र की लहरों की भांति सबसे पहिले कहना असंगत है किंतु मोटी भाषा में कह लेते हैं ) भारत में आयों के अतिरिक्त और कोई जाति बसती थी वा किसी उपयोगी पदार्थ के व्यवहार में हमारे पूर्वज अक्षम थे । हाँ, समय के साथ २ लोगों को चाल ढाल, वस्तुओं के रूप रंगादि में परिवर्तन सदा, सब कही होना रहता है, पर यह असंभव है कि कोई सम्म देश, जिसे भोजनाच्छादन के लिये दूसरों का मुंह न देखना पड़ता हो, अपने निर्वाह के लिये दूसरों की बोली सीखना अत्यावश्यक न हो वह अपने व्यवहार योग्य समयोपयोगी वस्तु अथवा नियम न बना सक्ता हो। इस न्याय के अनुसार यदि कोई पूछे कि रथयात्रा की रीति कम से है तो हम छूटते ही उत्तर देंगे कि सदा से । अर्थात् जब से यहाँ आर्य जाति का राज्य है तब से। नियत समयों पर प्रजा को दर्शन द्वारा प्रमुदित करने के लिये, संसार को अपना वैभव दिखाने के लिये, राज्य की पर्यालोचना करने के लिये अथवा शत्रुओं का दमन करने के लिये राजा, महाराजा अथवा रामचंद्रादि दिव्यावतार ऐश्वर्य प्रदर्शन के अवयवों समेत रथ पर चढ़ के विवरण किया करते थे, जिसका अनुसरण जब कि अपने यहां की बातों से ममता हो, घर की भलाई में बुराई ढूंड़ने का दुर्व्यसन न हो, अच्छे उपदेश, जहाँ से, जिस प्रकार मिलें, दूंछ निकालने में रुचि हो और मनोमंदिर कुतों को नृत्यभूमि न बन गया हो तो सुनिए । १. काली और कृष्ण दोनों एक ही हैं। जो राधा जी के बनमाली हैं वही अयन घोष की रण काली हैं । पल भर में मदनमनोहर मुरलीधर रणरंगिनी हो जाते हैं तया पल ही भर में दैत्यसंहारिणी बृंदावनबिहारी बन जाती है। अतः वैष्णवों और शाक्तों