पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२८८

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ममता यह ऐसा उत्तम गुण है कि सारी भलाइयों का मूल कहना चाहिए । जब तक जिस देश पर परमात्मा की जितनो दया दृष्टि रहती है तब तक वहां के लोगों के जी में उतनी ही अधिक इस गुण की स्थिति रहती है। जहां के लोगों को देखिए कि अपने यहां के मनुष्यों, पशुओं, पक्षियों तथा पदार्थों का सच्चे जी से ममत्व रखते हैं और उनकी प्रतिष्टा यावत जगत से अधिक करते हैं वहां समझ लेना चाहिए कि 'कोटि विघ्न संकट विकट, कोटि दुष्ट इक साथ । तुलसी बल नहिं करि सके, जो सहाय रघुनाथ ।' का जीवित उदा- हरण विद्यमान है। सदा, सब कही के, सभी लोग, सब गुणपूर्ण कभी नहीं होते पर जहां यह गुण दृढ़ रूप से स्थीयमान होता है वहां 'सब सुख सम्पत्ति बिनहिं बुलाए, धर्मशील पहं जाहिं सुभाए'। कारण यह है कि सबको सबसे सहारा मिलता रहता है । सबके जो में यह बल रहता है कि हम अकेले नहीं हैं, एक बड़ा भारी समूह सदा सब दशा में हमारे साथ है। इससे सभी को सब प्रकार का सुभीता प्राप्त रहता है। अपने यहां के पुराने ग्रंथों को देखिए तो गंगा, सिंधु, सरस्वती, यमुना इत्यादि नदियों का नाम, ब्रह्मद्रव, स्वर्गदायिनी, अमृतमयी इत्यादि; अयोध्या, मथुरा, काशी, प्रयागादि नगरों के नाम विष्णुपुरी, परमात्मा का बिहारस्थल, मोक्षदा तीर्थराज; तुलसी, पीपल आदि वृक्षों के नाम विष्णुप्रिया, वासुदेव, इत्यादि लिखे हैं। इसका अभिप्राय नये मत वालों के कथनानुसार हमारे पूर्वजों की हरिविमुखता अथवा लकीर के फकीरों के विचारानुसार धर्म को अनेकता नहीं है। वेदों में ईश्वर और धर्म की अद्वितीयता सैकड़ों स्थल पर लिखी है । पुराणों में पंचदेव की अभिन्नता तथा सब मतों का एकता सहस्रों ठौर वणित है और सप्तपुरी पंचवट आदि की व्याख्या करने वाले वेदादि का अर्थ न लानते थे इसका कोई प्रमाण नहीं है पर बात सारी यह थी कि देश की ममता उनके चित्त में भरी हुई यो । उसकी उमंग में उन्हें अपने यहां की नदियों का जल अमृत सा जंचता था, अपने नगर वैकुंठ से उत्तम देख पड़ते थे-'वृन्दावन बैकुंठ दोउ, तौले रमानिवास । गरुवो धरती पर रह्यो, हलको गयी अकास' । अपने वृक्ष देवता जान पड़ते थे, उनका सींचना धर्म का अंग बोध होता था; उन्हें जनेऊ पहिनाना, चंदन पुष्पादि से सुशोभित करना आंखों को सुख देता था । वृथा कोई एक पत्ती भी तोड़ लेता था वह पापी समझ पड़ता था। कहां तक कहिए ममता का उन दिनों इतना संचार था कि स्नान करने के ऊपर अपने प्यारे नगरों की मट्टी तक लोग शिर पर मलते थे, छाती से लगाते थे। इसी के प्रभाव से चारों ओर सुख सौभाग्य की इतनी भरमार थी कि लोग राज्य छोड़ २ वन, पर्वतों में जा बैठते थे। त्रेता में भगवान रामचन्द्र को अयोध्या से सैकड़ों कोष दूर बन में अच्छी मली रावण ऐसे शत्रु को जीतने पोग्ब सेना प्राप्त हो गई थी। भला बताइए तो सुग्रीव उनके नातेदार थे? या दहारण जी का दिया बाते थे? नहीं । बनबासी (जिन्हें