पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२८९

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हमारी आवश्यकता] २६७ कवियों ने बंदर की उपाधि दी है) लोगों तक को यह ज्ञान था कि अयोध्या अपने राजा की राजधानी है, उसके आगे लंकावालों का हमारा क्या संबंध है। द्वापर में भीष्म जी को पिता कह के पुकारने वाले का जन्म धारण असंभव था तो सारे देश ने उन्हें पितामह अर्थात् पिता का भी पिता निश्चित कर लिया। अभी कलियुग में भी कई राज्यों में यह रीति पड़ गई थी (जिसका बहुत बिगड़ा हुआ रूप अब भी कहीं २ बना है ) कि राजा के यहां ब्याह है तो प्रमा मात्र को मुहुर्त पूछने की आवश्यकता नहीं और राजा मर गया तो राज्य भर की स्त्रियों का एक २ हाथ चूड़ियों से खाली । तभी सिकन्दर ऐसे दिग्विजयी राजा मगधेश्वर का सामना करते हुए कचियाते थे । तभी नौशेरवां- सरीखे महाराज कन्यादान करते थे । पर अब वह गुण हममें नहीं रहा। अब हमें अपने भाइयों का सुख दुःख देख के सच्चा सुख दुःख नहीं अनुभव होता वरंच उसके स्थान पर कोई न कोई मिष ढूंढ़ के हम उनसे अलग रहना चाहते हैं । स्वार्थ के अनुरोध से उनकी प्रतिष्ठा, धन, धरती आदि की जड़ काटने में पाप नहीं समझते। आज हम अपनी गंगा, भवानी, तुलसी, पीपल, प्रतिमा, पुराणादि को वेद विरुद्ध बरंच वेद को भी पुराने असभ्य किसानों के गीत समझते हैं। आज हम मुरशिदागद की गर्द ( रेशमी कपड़ा) और बनारस की कमख्वाब पहिनने में शरमाते ही नहीं बरंच अपव्यय समझते हैं । रोगग्रस्त होने पर भी चौगुने दाम दे के मशक का पानी पीते हैं पर चूर्ण, पाक अवलेह सेवन करें तो शान के बईद है। कहां तक कहिये अपनी बोली तक बोलना व्यर्थ समझते हैं । बस इसी से नौकरी तक में बाधा है। दुःख सुनाने में भी खर्च है, डर है, सच्चाई का ह्रास है, बरंच कभी २ पूरा उद्योग करने पर भी परिणाम में निराशा है । यह क्यों ? इसी से कि हमें अपनी ही ममता नहीं है फिर दूसरों को हमारी ममता क्यों हो । जब तक हमें हम और हमारा का सच्चा ज्ञान न होगा तब तक हम यों ही, बरंच इससे भी गए बीते बने रहेंगे और लाख बातें बनावै और करोड़ दौड़ धूप करें पर होगा कभी कुछ नहीं। अतः सारे झगड़े छोड़िए और यह प्रण कर लीजिए कि कोटि कष्ट उठावेंगे, घर फूंक तमाशा देखेंगे, पर यह हठ न छोड़ेंगे कि अपना अपना ही है, अपनी मट्टी भी दूसरों के से ने से मूल्यवान है। बस यही ममता का मूल मंत्र है । इसी को सिद्ध कीजिए और दूसरों को उपदेश दीजिए तो ईश्वर राजा प्रजा सुख सम्पत्ति सौभाग्य सुयश सुदशा सबकी ममता के पात्र बन जाइएगा। नहीं तो यहां क्या है, थोड़ा सा कागज खराब हो गया सही, पर तुम्हारा सभी कुछ धीरे २ ममता के बिना रमता योगी हो जायगा । खं० ७, सं० ३ ( १५ अक्टूबर ह० सं०६)