पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२९१

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हमारी आवश्यकता ] २६९ द्वार खुल जायगा पर यदि पहिले पहिल कुछ अड़चलें देख पड़ें तो यह समझ के झेल डालनी चाहिए कि सुख का उपाय करने में दुःख होता ही है । जिसने यह न अंगी- कार किया वह उसे क्या पावेगा। यह विनगर चित्त में दृढ़स्थायी किए बिना और शीघ्र आलस्य छोड़ के कटि कसे बिना भविष्यत के लिए घोर विपद का सामना है । इससे सब काम छोड़ के पहिले लक्ष्यमाण आवश्यकताओं को पूर्ण करने में तन, मन, धन लगाना परमावश्यक है। सबसे पहिले लड़कों के पढाने का उचित प्रबंध करणीय है। क्योकि सबसे आदिम अवस्था इन्हीं की है और इसी अवस्था की शिक्षा से उनको जन्म भर का सहारा और उनके पूर्वजों और अनुजों (पीछे उत्पन्न होने वालों अर्थात् छोटे भाइयों तथा युवादिकों) के सुख सौभाग्य मुयशादि का द्वार प्राप्त होता है। वह यदि अपने देश और दशा के अनुकूल न हुई तो हमें भारी उन्नति की कुछ भी आशा नहीं है और इसमें कोई संदेह नहीं है कि जब तक अपनी भाषा में पूर्ण रूप से पठन पाठन नहीं होता तब तक शिक्षा सदा अधूरी ही रहती है और पूर्ण फलदायिनी नहीं होती। इससे हमें हिंदी और संस्कृत अवश्यमेव पढ़नी पढ़ानी चाहिए । बरंच उच्च शिक्षा इन्हीं में प्राप्त करनी चाहिए । अंगरेजी, फारसी, अरबी, तुरकी यदि काम निकालने मात्र को सीख सिखा ली जाय तो अच्छा है, नहीं तो हमारी भाषा से भी हमारा कोई काम अटक न रहेगा। जब देश में एक बड़ा भारी समुदाय ऐसा हो जायगा जो निज भाषा में पूर्ण दक्ष और अपने निर्वाह के लिए सब प्रकार के कष्ट सह के भी अपने ही हाथ पांव का सहारा लेने का हठी तथा अन्य भाषाओं के लिए आत्मत्व को न छोड़ने में पूर्ण उत्ाही हो, तब कोई भी संदेह नहीं है कि गवर्नमेंट हमारी सुविधा का भी प्रबंध अवश्य करैगी। आज इलाहाबाद यूनीवर्सिटी ने हिंदी को उठा के यह सिद्ध कर दिया है कि उस में हिंदू जगत को ममता रखने वाला कोई नहीं है। अपने माथे से कलंक का टीका मिटाने के लिए संस्कृत को बना रहने दिया है । यह भी उसकी पालिसी मात्र है, हमारी हितपिता नहीं है। क्योंकि हिंदी के पूरे सहारे बिना संस्कृत लोहे के चने हैं और यह आशा भी अनेकांश में दुराशामात्र है कि सर्कार हमारी एतद्विषयक प्रार्थना सुनेगी। अस्मात हमें अपने लोक परलोक के निर्वाहाथ अपनी भाषा स्थिर रखने के लिए केवल अपने ऊपर भरोसा रखना चाहिए। आज हम लाव गई बीती दशा में हैं पर हमारी भाषा क्सिी अन्य भाषा के किसी अंग से किसी अंश में कुछ भी कम नहीं है और यदि इसे संस्कृत का सहारा मिल जाय तो मानो सोने में सुगंध हो जाय । क्योंकि संस्कृत के यद्यपि लाखों ग्रंथ आज लुप्त प्राय हो गए हैं तथापि जा मिलते है अथवा दौड़ धूप से मिल सकते हैं वह ऐसे नहीं कि किसी लौकिक अथवा पारलौकिक विद्या से रहित हों। बरश्च यह कहना अत्युक्ति नहीं है, अनेक सहृदयों की साक्षी से सिद्ध है, कि जो कुछ संस्कृत के प्राचीन ग्रंथकार लिख गए हैं वही अभी तक दूसरी भाषा के अभिमानियों को सूमना कसा पूरी रीति से समझना ही कठिन है। एक बार नहीं सैकड़ों बार देखने