पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२९२

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

२७० [ प्रतापनारायण-ग्रंथावलो में आया है कि जिस विद्या के जिस अंग को विदेशी विद्वानों ने वर्षों परिश्रम करके, सहस्रों का धन खो के, हस्तगत किया है और अनेक लोगों की समझ में उसके आचार्य ( ईजाद करने वाले ) समझे गये हैं वही बात संस्कृत की किसी न किसी पुस्तक में सहस्त्रों वर्ष पूर्व की लिखी हुई ऐसी मिल गई है कि बुद्धिमान चकित रह गए हैं । फिर हम नहीं जानते ऐसी सर्वाग सुंदर भाषा के भंडार के रत्न अपनी मातृभाषा के कोष में क्यों नहीं भर लिए जाते । रही वे बातें जिन पर इस समय तक विदेशी ही विद्वानों का दावा है। वे हमारे देश के बी. ए. एम. ए. डाक्टर बारिस्टरादि के द्वारा हमारी भाषा में सहजतया भर ली जा सकती है और सर्वसाधारण के लिए वर्षों के परिश्रम का फल महीनों में दे सकती है। जो लोग यह समझ बैठे हैं कि अंगरेजी पढे बिना भोजनाच्छादन कहां से प्राप्त होगा उनको यह भी आंखें खोल के देखना चाहिए कि एक तो संसार का नियम है कि कोई भूखा नहीं रहने पाता बरंच बीसियों बेर देखा गया है कि अजीर्ण रोग से चाहे कोई मर भी जाय पर अन्नाभाव से नहीं मरता । लोगों को ज्वरादि के कारण पंद्रह २ बीस २ लंघन हुए हैं. जल के सिवा अन्न का दाना नहीं खोंटा, पर प्राण देवता ज्यों के त्यों बने हैं । रहा सहज में सुखपूर्वक निर्वाह, वह जिस बात में परिश्रम कीजिएगा उसी के द्वारा प्राप्य है । जितना परिश्रम आप अंगरेजी में करते हैं उतना ही संस्कृत में कर देखिए तो प्रत्यक्ष हो जायगा कि विद्वान सभी सुखित रहते हैं। काले गोरे रंग के भेद भाव की दया से हम बीसियों एम०ए० पास किये हुए हिंदू दिखला देंगे जिन्हें सौ डेढ़ सौ ( हद दो गो) से अधिक वेतन को नौकरी के दर्शन नहीं होते। सो भी कब ? जब विदेशी भाषा, विदेशी भेष, विदेशी विचार (खयालात), विदेशी व्यवहार (बरंच आहार), विदेशियों को जै जै कार इत्यादि के मारे अपनी ओर देखने का अवसर नहीं मिलता। यदि उतना ही परिश्रम कोई किसी शास्त्र में करे तो क्यों किसी रजवाड़े अथवा कालेज में सो दो सौ की नौकरी न पा जायगा। यदि सेवा की वृत्ति न भी स्वीकृत हो तो विद्या के प्रभाव से प्रत्येक उद्योग में उतने के लगभग प्राप्ति हो सकती है। कुछ भी न कीजिए तो तनिक देखिए कि स्वामी विशुद्धानंद सरस्वती, स्वामी दयानंद सरस्वती, परिव्राजक श्रीकृष्ण प्रसन्न सेन इत्यादि की प्रतिष्ठा किस विदेशी भाषा के पंडितराज से कम है ? बरंच बारके एम. ए० बी० ए० आदि जिन श्रीमानों के द्वार पर खड़े रहते हैं वह धनाढ्य इन विद्वानों की सेवा में अपना गौरव समझते हैं। रहे मिडिल एंटरेंस वाले छुटभए, वे जितनी प्राप्ति अंगरेजी फारसी के द्वारा कर लेते हैं उतनी हमारे साधारण पंबित भी सेवा सुश्रुषादि करके अवश्य हस्तगत कर सकते हैं। नहीं तो जितमी मुंडधुन माप विदेशी भाषा में कर रहे हैं इतनी ही हम अपनी ज्योतिष, वैद्यक, पुराणादि में करके बिना नौकरी आपके लगभग कमा सकते हैं। बरंच आप अपनेपन से अनेकांश में रहित हो जाइएगा और हम सर्वथा शुद्ध बरंच शुद्धता के शिक्षक कहलावेंगे। फिर न जाने क्यों हमारे देश भाई अपनी भाषा से मुंह फेरे बैठे हैं। हम अन्य भाषाओं के पढ़ने पढ़ाने का