पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२९३

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हमारी आवश्यकता ] २७१ विरोध नहीं करते, पर इतना अवश्य कहेंगे कि आरंभ ही से लड़कों को ए बी सी डी अथवा अलिफ बे रटाना उनका जन्म नशाना है। इस दशा में वे अपनी रीति नीति, धर्म कर्मादि से बंचित आत्मगौरव एवं अपने लोगों की मान मर्यादा से विरक्त हो के, कठिन परिश्रम कर के, निर्बल शरीर अथवा संकुचित बुद्धि बन के, केवल सेवा कर के, पेट पालने के योग्य रह जाते हैं। पर इसके विरुद्ध यदि बाल्यावस्था में उन्हें हिंदी और उसके साथ संस्कृत भलीभांति सिखला दी जाय तो उनको निजता दृढ़स्थायिनी हो जाय कुल परंपरा के अनुकूल जीवन यात्रा का उपाय करते हुए लाज न लगे, जिस काम को उठावें बहुतेरों की अपेक्षा उत्तमता से कर सकें और ऐसी दशा में बाबू अथवा मुंशियों से सो विश्वा अच्छे रहें। यदि अंगरेजी फारसी का प्रेम फसफसाए तो केवल भाषा ही भाषा में परिश्रम करना पड़े, इससे हमारे धनी, निर्धनी, समर्थ, असमर्थ का मुख्य कर्तव्य ही है कि हिंदी पढ़ना पढ़ाना शपथपूर्वक अंगीकार कर ले । कोई न कोई दी का पत्र अवश्य देखा करें। हिंदी में जितने ग्रंथ बनें उनकी एक २ कापी अवश्य खरीद लिया करें और यथासंभव संस्कृत अंगरेजी के विद्वानों से उत्तमोत्तम विद्याओं की पुस्तकें हिंदी में अवश्य अनुवाद कराया करें। ऐसा होने से आज जिन विद्वानों, बुद्धिमानों, संपादकों सुलेखकों और सत्यकवियों के अनेकानेक रत्न सदृश विचार अनुत्साह के कारण मन के मन ही में रह जाते हैं उनका हृदय प्रोत्साहित होगा और तद्वारा दो ही चार वर्ष में देखिएगा कि हम क्या से क्या हो गए और आगे के लिये हमें तथा हमारे आगे होने वालों के लिए क्या कुछ प्राप्त हो चला। हमारे यहाँ विद्याओं और विद्वानों का अभाव नहीं है पर उनका प्रचार तथा प्रोत्साहन देनेवाले केवल इसने ही हैं कि उंगलियों पर गिन लिए जायं। उनमें भी सच्चे और सामर्थ वाले और भी थोड़े। इसी से कुछ भी करते धरते नहीं बनता । अस्मात् सर्वतः प्रथम हमें इसकी आवश्यकता है कि हमारे सुलेखक और सुवक्तागण सर्वसाधारण के जी में हिंदी का प्रेम उपजाना, नित नए ग्रंथों का प्रकाशित करना कराना और जहाँ तक हो सके उन्हें सस्ते दामों बिकवाना बरंच किसी व्यक्ति वा समूह की सहायता से गली २ घर २ में सेंत बंटवाना, पढ़ने योग्य स्त्री पुरुषों को पढ़ाना नहीं तो सुनाना, अपना परम धर्म समझें, शेष बातों को उस के अंग मात्र। खं०७, सं० ३ (१५ अक्टूबर ह० सं० ६)