पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३२

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

१० [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली है-'यत्किचिन्मनुरवदत्तद्भपज भेषजस्य' ऐसा कहा है, उन महर्षि की यह आज्ञा है कि गृहस्थ नित्यमेव भोजन के समय के पहिले कुत्तों का भाग निकाले । मनुस्मृति में जहां बलिवश्वदेव का वर्णन है, 'शुनाच' -यह शब्द सबसे पहिले आया है । श्री गरुणादि पुराणों के अनुसार भी पितृश्राद्ध में श्वानबलि (कुन का भाग निकालना उचित है । हमारे आर्य भाइयों के पूज्य देवता साक्षात भगवान शिवजी के अंशावतार श्रीभैरव जी महाराज ने इसी श्रेष्ठ पशु को इस योग्य समझा है कि अष्टप्रहर अपने साथ रखते हैं । इसी जाति का एक जोव मुसल्मानो के मान्य पुरुष असहावे कहफ को ऐसा प्यारा था कि वे कयामत के दिन उसे अपने साथ बिहिश्त ले जाएगे । जिन पुस्तकों और किताबों में बलि प्रदान और कुर्बानी चढ़ाना लिखा है, यहां तक कि नरबलि और आदमी की कुर्बानी लिखी गई, पर यह श्रेष्ठ जीव ऐसा उपयोगी समझा गया कि सब धर्मग्रंथों में इसे अबध्य ठहराया है। यदि कोई पुरुष किमी मत की धर्म पुस्तक का कायल न हो वह इसके सहस्रों गुण अपनी आंखों देख ले । इस वफादार का एक साधारण सा गुण यह है कि भयानक अंधकारमय रात्रियों में, असंख्य प्राणनाशक पशु- पूर्ण बनों में, और महा अगम्य पवंतों और नदियों में भूख, प्याम, चोट आदि नाना प्रकार के कष्टों को सह कर बरंच कभी २ अपने प्राणों को भी खो कर यह अपने स्वामी का साथ देता है और उसकी रक्षा करता है । हम निर्भय हो कर यह कह सकते हैं कि मनुष्य मात्र के लिए एक सच्चा सहायक है तो यह है। हमारे यहां के सज्जन महात्मा न्याय दृष्टि में विचार के गऊ के उनम गुणो के कारण उसे गऊमाता कहते हैं, हमारी मपझ में लाभकारो गुणों के हेतु यदि इम का नाम कुत्तामाई रक्या जाय तो अत्यंत सत्य है। आदमी, जो धीगाधीगी अपने को 'अशरफुलमखलूकात' कहते हैं, उनमें कोई बिरला ही सच्चा निष्कपट धमिष्ठ महात्मा होगा जो इस नाम के योग्य हो, पर यह पशु अपने जातिस्वभाव ही से 'अशरफुलमखलूकात' की पदवी को ग्रहण कर सकता है । इस जीव से हमारे अनेक उपकार होते हैं । उनके बदले हम जो कुछ उसका पालन पोषण और रक्षण करें सो थोड़ा है। __ परंतु बड़े खेद का विषय है कि ऐसा उपकारी जन्तु बिना अपराध अत्यंत निर्दयता और पशुत्व के साथ मेहतरों के हाथ से हामारो आंग्वों के सामने मारा जाय और हम आर्य लोग और हमारे जनी भाई खड़े २ देखा करें कि उसका ला दुकान २ के आगे सड़कों पर फरियाद करता हुआ गिरे ! आह ! कसी निर्लजता की बात है ! भाइयों! क्या 'अहिंसा परमोधर्म:' केवल कहने ही मात्र को है ? जिधर देखो उधर बड़े र नाम की सभाए स्थापित होती हैं, गज २ भर के लबे चौड़े ल्यकचर दिये जाते हैं, हजारों रुपये के चंदे पर दस्तखत हो जाते हैं, पर इस शुभ कार्य मे, जिस से लोक परलोक दोनां बने, कोई देशहितषी कान तक नहीं फटफटाता ! ____ कदाचित कोई कहे कि सरि से हमारा क्या वश है ? तो क्या हमारे मुंह में जोम नहीं है जो सर्कार से इतना निवेदन करें कि सरे बाजार कुत्ते न मारे जाए। जब सरि ने मुंडचिरी को इसी विचार से दण्डनीय ठहराया है कि वे रुधिर बहा के