पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बात ] ३०३ जमाने योग्य बात गढ़ सकना भी ऐसों वैसों का साध्य नहीं है। बड़े २ विज्ञवरों तथा महा २ कवीश्वरों के जीवन बात ही के समझने समझाने में व्यतीत हो जाते हैं । सहृदयगण की बात के आनंद के आगे सारा संसार तुच्छ जंचता है। बालकों की तोतली बातें, सुंदरियों की मीठी २ प्यारी २ बातें, सत्कवियों की रसीली बात, सुवक्ताओं की प्रभावशालिनी बातें जिसके जी को और का और न कर दें उसे पशु नहीं पाषाण खंड कहना चाहिए। क्योंकि कुत्ते, बिल्ली आदि को विशेष समझ नहीं होती तो भी पुचकार के 'तू तू' 'पूसी पूसो' इत्यादि बातें कह दो तो भावार्थ समझ के यथा सामथ्यं स्नेह प्रदर्शन करने लगते हैं। फिर वह मनुष्य कैसा जिसके चित्त पर दूसरे हृदयवान की बात का असर न हो। बात वह आदरणीय बात है कि भलेमानस बात और बाप को एक समझते हैं। हाथी के दांत की भाँति उनके मुख से एक बार कोई बात निकल गाने पर फिर कदापि नहीं पलट सकती। हमारे परम पूजनीय आर्यगण अपनी बात का इतना पक्ष करते थे कि "तन तिय तनय धाम धन धरनी। सत्यसंध कहं तृन सम बरनी" । अपच "प्रानन ते सुत अधिक है सुत ते अधिक परान । ते दुनौं दसरथ तजे वचन न दीन्हों जान"। इत्यादि उनकी अक्षरसंवद्धा कीर्ति सदा संसार पट्टिका पर सोने के अक्षरों से लिखी रहेगी। पर आजकल के बहुतेरे भारत कुपुत्रों ने यह ढंग पकड़ रक्खा है कि 'मदं की जबान ( बात का उदय स्थान ) और गाड़ी का पहिया चलता ही फिरता रहता है'। आज और बात है कल ही स्वार्थाधता के बंश हुजूरों की मरजी के मुवाफिक दूसरी बातें हो जाने में तमिक भी विलंब की संभावना नहीं है । यद्यपि कभी २ अवसर पड़ने पर बात के अंश का कुछ रंग ढंग परिवर्तित कर लेना नीति विरुद्ध नहीं है, पर कब ? जात्योपकार, देशोद्धार, प्रेम प्रचार आदि के समय, न कि पापी पेट के लिए । एक हम लोग हैं जिन्हें आर्यकुलरत्नों के अनुगमन की सामर्थ्य नहीं है। किंतु हिंदुस्तानियों के नाम पर कलंक लगाने वालों के भी हमार्गी बनने में घिन लगती है। इससे यह रीति अंगीकार कर रखी है कि चाहे कोई बड़ा बतकहा अर्थात् बातूनी कहै चाहे यह समझे कि बात कहने का भी शउर नहीं है किंतु अपनो मति अनुसार ऐसी बातें बनाते रहना चाहिए जिनमें कोई न कोई, किसी न किसी के वास्तविक हित की बात निकलती रहे । पर खेद है कि हमारी बातें सुनने वाले ऊंगलियों ही पर गिनने भर को हैं। इससे "बात बात में वात" निकालने का उत्साह नहीं होता। अपने जी को 'क्या बने बात जहां बात बनाए न बने' इत्यादि विदग्धालापों की लेखनी से निकली हुई बातें सुना के कुछ फुसला लेते हैं और बिन बात की बात को बात का बतंगड़ समझ के बहुत बात बहाने से हाथ समेट लेना ही समझते हैं कि अच्छी बात है। खं० ७ सं० १० ( १५ मई ह• सं०७)