पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३४४

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

३२२ [ प्रतापनारायण-यावलो उपयुक्त पुरुष जितने चाहिएं उतने सहज में नहीं मिल सकते । यदि मिलें भी तो उनके लिए बहुत सा धन और वर्षों का समय चाहिए । उसका आज ठिकाना कहां हैं । यों यथासामन्यं उद्योग सबको सब बातों के लिए सदा करते रहना उचित है। पर कठिन बातें कष्टसाध्य होने की दशा में सहज उपाय का छोड़ देना बुद्धिमानी के विरुद्ध हैं । इस न्याय के अनुसार चतुर देशभक्तों को आज दिन साहित्य का अवलंबन करना अत्युचित है। क्योंकि इस में बहुत व्यय की आवश्यकता नहीं हैं और सुलेखक तथा सत्कवि भी यद्यपि इस देश में बहुसंख्यक नहीं हैं तथापि इतने अवश्य है कि एतद्विषयक कार्य में भलीभांति सहारा दे सकें एवं संगोतवेत्ताओं की अपेक्षा इनकी संख्या का बढ़ना भी सहजतया अथच शीघ्र संभव है और इनके द्वारा सर्वसाधारण में हिंदी की रुचि उत्पन्न होना वा यों कहो कि एक बड़े भारी जन समूह का सर्वागिनो उन्नति के डरें पर चल निकलना कष्टसाध्य तो हई किंतु असाध्य कदापि नहीं है। यही विचार कर हमारे कई एक मित्रों ने यहां पर एक 'रसिक समाज' स्थापित किया है जिसका उद्देश्य केवल भाषा का प्रचार और साधु रीति से सभासदों का चित्त प्रसन्न रखना मात्र है क्योंकि बड़े २ झगड़े उठा लेने वाली सभाओं की दशा कई बार देख ली गई है कि या तो थोड़े ही दिन में समाप्त हो जाती हैं या बनी भी रहती हैं तो न रहने के बराबर और अपना मंतव्य बहुधा अपने सभ्यों से भी यथेच्छ रूप से नहीं मनवा सकतो। इससे इन के संचालकों ने केवल इतना ही मात्र अपना कर्तव्य समझा है कि नए और पुराने उत्तमोत्तम गद्य तथा पद्य सभासदों अय व आगंतुकों के मध्य पढ़ने पढ़ाने को पर्चा बनाए रखना तथा यथा संभव निकट एवं दूर तक इसी प्रकार की चर्चा फैलाते रहना। इसके सभासद केवल वही लोग हो सकते हैं जो हिंदी में रोचक लेख लिख सकते हों वा कविता कर सकते हों अथवा इन्हीं दोनों बातों में से एक वा दोनों सीखने को रुचि रखते हों वा अपने तथा मित्रों के मनोविनोद का हेतु समझते हों। इसमें मौखिक वा लेग्वनोबद्ध व्याख्यान अयवा काव्य मुख्यरूपेण केवल हिंदो की होगी कित सर्वथा मान्य एवं सर्व भाषा शिरोमणि होने के कारण संस्कृत की भी शिरोधार्य मानी जायगी और उर्दू केवल उस दशा में ली जायगी जबकि व्याख्यानदाता हिंदी में गद्य अथवा पद्य न कह सकते हों किंतु हों देश, जाति, भाषा वा सभा के शुभचिंतक और सभासदों को बहु सम्मति द्वारा अनुमोदित,बस । और किसी भाषा से सभा को कुछ प्रयोजन न रहेगा। मत मतांतर का खंडन मंडन करके आपस में वैमनस्य बढ़ाना, समाज के उन विषयों का विरोध करके देश भाइयों को चिढ़ाना जिनको बहुत से लोग आग्रहपूर्वक ग्रहण किए हुए हैं और पोलिटिकल ( राजनैतिक ) बातों में योग दे के अधिकारियों को पर्थ रुष्ट करना सभा को सर्वदा अश्रद्धेय होगा क्योंकि इन बातों में बड़ी मुड़ धुन और बड़े गय से भी बहुधा फल उलटा हो निकलता है अथवा मनोरथ सफल भो होता है तो बहुत ही स्वल्प । सम्य जन को चंदा किसी प्रकार का न देना पड़ेगा क्योंकि बीसयों बार देखा गया है कि बड़े २ धनिकों से भी प्रसन्नतापूर्वक सरल भाव से थोड़ा सा धन भी प्राप्त होने में कठिनता पड़ती है । इस सभा ने इसका नियम ही नहीं रक्खा । हां,समा के