पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३५५

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विश्वास ] ३३३ जानता है । यह बात विश्वासी मात्र प्रायः देखते ही रहते हैं कि जिन अवसरों पर बटि काम नहीं करतो, बल नष्टप्राय हो जाता है, सहायक मात्र अपनी अपनी ओर खिच रहते हैं पर आपदा कराल रूप से आक्रमण करती है उस समय वेबल विश्वास एक अनिर्वचनीय रूप धारण कर के वह युक्ति बतलाता है, वह शक्ति उत्पादन करता है, वह साहाय्य प्रदान करता है कि इहकालिक शुष्कविज्ञानी समझ हो नहीं सकते, दूसरों को किन शब्दों में समझायेंगे ? मितु जिसे थोड़ा सा भी अनुभव है वह जानता ही नहीं बरंच प्रत्यक्ष देखता है। फिर भला ऐसी जादू की सी शक्ति को बिना जाने झूठ वा तुच्छ समझना अज्ञता नहीं तो क्या है ? जिस शक्ति के द्वारा ऐसी २ लीला प्रायः नित्य ही देखने मे आया करती है, देखने वाले देखते हैं और जो देखना चाहें वह देख सकते हैं कि जब सब ओर से नितांत निरा- शता हो जाती है तब विश्वास देव केवल आशा ही नही प्रत्युत आशा से कहीं अधिक सहायता दान करते हैं । उस देवी शक्ति की उपेक्षा करना कहां की विद्वता है ? इतनी महत्सामर्थ्य होने पर, जिसका जीवित सम्बन्ध लाभ करना बहत कठिन नहीं है, केवल मन को स्थिर और स्वच्छ तथा धर्यवान बनाने का अभ्यास करना पड़ता है, फिर साफल्य में संशय नहीं रहता। ऐसे दिव्य गुण विशिष्ट विश्वास से बंचित रहना कौन सी बुद्धिमानी है ? मन यदि सच्चाई के साथ मंगलमय परमात्मा का विश्वासी बनाया जाय तो फिर विश्व भर में कही कोई पुरुष व पदार्थ अनिष्टकारक अथवा अविश्वास- प्रसारक रही नहीं सकता। हां, यदि आप ईश्वर को न मानते हों तो केवल उन लोगों का विश्वास मत कीजिए जिन्हो ने कही आप के साथ वा आप के आत्मीयों के साथ कपट व्यवहार किया हो वा कर उठाने का दृढ़ सन्देह उपजाते हों । किन्तु यह प्रण आर नहीं कर सकते कि कभी किसी का विश्वास करेंहीगे नहीं। यदि ऐसा हो तो संसार का चरखा एक दिन तो चली न सके ! क्या त्रिकाल और त्रिलोक में ऐसा कोई भी प्राणी हो सकता है जिसका सचमुत्र कोई भी विश्वासपात्र वा विश्वासी न हो? यदि हठपूर्वक ऐसा मान लीजिए वा बन जाइए तो भी अपने अस्तित्व ही पर सच्चा और अचल विश्वास करके विश्वास की महिमा प्रत्यक्ष देख सकते हैं और उस दशा में यह कहने में कभी न रुकेगे कि विश्वास में बड़ी शक्ति है, बड़ा आनंद है, बड़ा ही आश्चर्य गुण है । पर कहने से कुछ नही होता । जो विद्या पराक्रम पर तथा अपने बंधु बांधवादि पर, अपने कर्ता भर्ता संहर्ता पर विश्वास करने का अभ्यास डालिए तो थोड़े ही दिन में दृष्टिगोचर हो जायगा कि कैसे २ बड़े विघ्न सहज में नाश होते हैं और कैसे कठिन काम जात २ में बनते हैं । यदि देवात कोई त्रुटि भी रह गई तो उसकी पूर्ति में संदेह रहना संभव नहीं है । क्योंकि विश्वास जब विश्वनाथ विश्वम्भर तक को सहज में मिल सकता है तब विश्व की आशा पूर्ण करना कौन बड़ी बात है । क्या ही उत्तम होता यदि समस्त भारतसंतान विश्वास का आभय करना सीखते और परस्पर एक दूसरे के विश्वासी तथा विश्वासमाजन बन के अपने देश एवं अपनी जाति का वही गौरव फिर संसार भर को दिखला देते जो प्राचीन काल में पूर्णरूप से विराजमान था अथच आज भी जिस के स्मरण मात्र से हृदय को सचा अहंकार उत्पन्न होता है। खं.८० ६ (जनवरो, ह. सं०८)