पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३५६

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उन्नति की धूम आजकल जिधर सुनो यही शब्द सुनाई देगा । समाचारपत्रों में तो उन्नति की धूम, व्याख्यानों में तो उन्नति की धूम, समाओं में तो उन्नति की धूम । अजान बालकों और मृत्यु की घड़ियां गिननेवाले बुड्ढों को छोड़ के जिसे देखो उसे यही सनक चढ़ी है कि देश की दशा दिन २ बिगड़ती जाती है इससे सामाजिक उन्नति होनी चाहिए, राज- नैतिक उन्नति होनी चाहिए, धार्मिक उन्नति होनी चाहिए, विद्या की उन्नति होनी चाहिए, धन की उन्नति होनी चाहिए, बल की उन्नति होनी चाहिए। इसी उमंग में कितने ही लाल कपड़े पहिने दुनिया की ओर से मूंड मुंडा डालने का रूप लाए कटक से अटक तक कोलाहल करते फिरते हैं। कितने ही कोट पतलून चढ़ाए धर्म कर्म के नाम खली तेल छू डालने का रंग जमाए हिंदुस्तान से इंग्लिस्तान तक हाय २ मचाते रहते हैं। इस बैलच्छि में रीम के रीम कागज, बरसों का समय, सहस्रों रुपया हाथ से बेहाथ हो रहा है। पर विचार कर देखिए तो सारी मुडधुन व्यर्थ है। यत्न उस बात के लिए कर्तव्य है जिसका अभाव हो । सो यहाँ उन्नति का कोई अंग शिथिल नहीं है फिर उसके लिए दौड़ धूप का क्या प्रयोजन ? प्राचीनकाल में जो कोई बारह वर्ष, चौबिस वर्ष, अड़तालिस वर्ष बेद वेदांग पढ़ने में "नोद नारि भोजन परिहरई" का उदाहरण बनता था वह अपनी योग्यता के अनुसार द्विवेदी त्रिवेदी चतुर्वेदो आदि कहलाता था। जो पूर्ण विद्या प्राप्त करके भलीभांति सांसारिक अनुभव में कुशल हो के सदसद्विवेकिनो बुद्धि का पुतला बन जाता था वह पंडित की पदवी पाता था। पर अब नागरी का अक्षर भी न जानते हों, धर्म कर्मादि के विषय में मनुपराशरादि की तो क्या गिनती है ब्रह्मा के भी बाप का कहना न मानते हों तो भी कान्यकुब्ज मात्र द्विवेदी त्रिवेदी, माथुर मात्र चतुर्वेदो और कश्मीरी मात्र पंडित हैं ! यदि कोई न कहे तो उस पर बड़े मजे में मानहानि का मुकद्दिमा चल सकता है। फिर भला यह उन्नति नहीं है तो क्या है ? अगले दिनों में विद्याभ्यास गुरुसेवा सतसंग इत्यादि करते २ जनम बीत जाता था तब कहीं ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता था जिसका निचोड़ यह है कि अकेला ब्रह्म सत्य है और समस्त संसार के झगड़े अर्थात् पाप पुण्य, स्वर्ग नर्क, अपना पराया, देवता पितर, सन्ध्या पूजा सब प्रममूलक हैं । आजकल यह ज्ञान स्कूल पाय धरते ही हो जाता है। वरंच मागे तो सब कुछ झूठ था एक ब्रह्म सत्य था पर अब वह कसर भी बहुधा जाती सी रहती है अर्थात् ईश्वर का अस्तित्व पहिले मिथ्या सा जान पड़ता है और बात चाहे किसी पालिसी से बनी भी रहें। मला इसे कौन उन्नति न कहेगा ? आगे के दिनों में बड़े २ विद्वान ब्राह्मण तथा बड़े २ लक्ष्मीवान क्षत्रिय अपने जीवन साफल्य जन जन सर्वस्व छोड़ छार कर वन में जा बैठने और कंदमूल फल खा के आयुष्य