पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३७९

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समझ को बलिहारो] ३५५ पुरखों की भलमंसी बचाने में अक्षमा हो जायें और रेल तार आदि के मार्गों से इंग्लि- स्तानवासियों का करोड़ों रुपए का नुकसान हो; जिसकी घटी पुजाना प्रायंसमाज की सामर्थ्य से कोसों दूर है। फिर सहयोगी जी किस बीरते पर हमें और हमारे धर्म को शरण देने का हौसला रखते हैं और अपने मुंह मियां मिठ्ठ बनने की कलंक से बच सकते हैं। और सुनिए 'बंगाल देश' के 'पंहित शशधर तक चड़ामणि आदि' पुराणों का विषय समझने में 'थक' जायं तो उन की बुद्धि का दोष है न कि पुराणों का, क्योंकि तर्कशास्त्र से और काव्यशास्त्र से इतना अंतर है जितना खाने की दवा से और लगाने की दवा से । पुराण धर्मानुरागियों के लिए बने हैं न कि झगडालुओं के लिए। इसी बात पर ध्यान दिए बिना दयानंद स्वामो सोचते २ परमधाम को पधार गए फिर तालंकार का थक जाना क्या अचंभा है ! आप का यह कहना निरा गप्प है कि 'दीनदयालकेवल थोड़ी सी उर पढ़े हैं। थोड़ी सी संस्कृत पढ़ के पंडित बन बैठना आप ही के समाजों का लक्षण है। इस का प्रमाण यदि मांगिए तो यही विद्यमान है कि आज तक सांगोपांग एक वेद का जानने वाला भी शास्त्रार्थ के लिए न देख पड़ा। किन्तु दीनदयाल जी की फारसी में लियाकत किसी मालिम से पूछिए तो मालूम हो । आप तो शायद उस की अलिफ बे होवा भी न जानते होंगे। फिर इस बात को क्या जान सकते हैं कि फारसी का विद्वान अपने उद्देश्य को सिद्ध करने में निरे पंडितों की अपेक्षा अच्छा ही होता है। इस का प्रमाण किसी वकील के पास बैठ के देख लीजिए तो अनुमान हो सकेगा कि दी० द. जो० पुराणो का महत्व सिद्ध कर सकते हैं या नहीं ! और उसी के अंतर्गत यह भी जान जाइएगा कि पुराण के मानने वाले धर्म के दृष्टांत से तो 'ईश्वर' को कभी 'भखा' और तुम्हारे समान 'पेट पालक' मानते क्या बिचारते भी नहीं हैं। रही प्रेम दृष्टि, उसके समझने का अधिकार आप तो क्या हैं आप के स्वामी जी को भी न था । बरंच आप के वेदों के आदिवेत्ता ब्रह्मा जी को भी देवत्व की हैसियत में नहीं है। 'झगड़ा बढ़ाना तो हमे न मंजूर है, न था, न होगा पर आप एक सच्ची बात को जबरदस्ती झुठलावें और उस झूठ का प्रकाश कर देना झगड़ा कहलाता हो तो लाचारी है। पं० तुलसीराम जी कानपुर बेशक आए और सड़ी भी गए होगे पर हम लोगों को न यहां दिखाई दिए न वहां । इस पर आप कहते हैं कि 'दीनदयाल भाग गए'। यह पक्षपात और झूठा पक्षपात आप का है वा हमारा ? तुलसीराम जी को कोई जानता न हो तो कहिए । वह भूत नहीं हैं, हौआ नहीं हैं, न दीनदयाल ही जी बच्चे हैं कि उनका नाम ही सुन के भाग जाते । फिर आप का ऐसा कहना पक्षपात नहीं तो क्या है ? ____ खं०८, सं० १० ( मई, ह० सं०८)