पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३९०

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ईश्वर की मूर्ति वास्तव में ईश्वर की मूर्ति प्रेम है पर वह अनिर्वचनीय, मूकास्वादनवत्, परमानंदमय होने के कारण लिखने वा कहने में नहीं आ सकता, केवल अनुभव का विषय है। अतः उसके वर्णन का अधिकार हमको क्या किसी को भी नहीं है । कह सकते हैं तो इतना ही कह सकते हैं कि हृदय मन्दिर को शुद्ध करके उसकी स्थापना के योग्य बनाइए और प्रेमदृष्टि से दर्शन कीजिए तो आप ही विदित हो जायया कि वह कैसी संदर और मनोहर मूर्ति है। पर यतः यह कार्य सहज एवं शीघ्र प्राप्य नहीं है। इससे हमारे पूर्व पुरुषों ने ध्यान धारणा इत्यादि साधन नियत कर रखे हैं जिनका अभ्यास करते रहने से उसके दर्शन में सहारा मिलता है । किंतु है यह भी बड़े ही भारी मस्तिष्कमानों का साध्य । साधारण लोगों से इसका होना भी कठिन है। विशेषतः जिन मतवादियों का मन भगवान के स्मरण में अभ्यस्त नहीं है वे नब आंखें मूंद के बैठते हैं तब अंधकार के अतिरिक्त कुछ नहीं देख सकते और उस समय यदि घर गृहस्थी आदि का ध्यान न भी करें तो भी अपनी श्रेष्ठता और अन्य पंथावलम्बियों की तुच्छता का विचार करते होग अथवा अपनी रक्षा वा मनोरथ सिद्धि इत्यादि के मानस से परमात्मा को भी सुध करते हों तो करते हों, नहीं तो केवल मुख से कुछ नियत शब्दों का उच्चारण छोड़ कर ईश्वर का वास्तविक भजन पूजन यदि एक मिनिट भी करते हों तो हमारा जिम्मा । कारण इसका यह है कि मनुष्य का मन होता है चंचल । वह जब तक किसी बहुत ही सुंदर वा भयंकर वस्तु अथवा व्यक्ति वा सुख दुःखादि की भोर न चला जाय तब तक एकाग्र कदापि नहीं होता। हाँ, बड़े २ योगी अभ्यास करते २ उसे स्वेच्छानुवर्ती बना सकते होगे, पर अपने सहतियों में तो हम किसी का सामर्थ्य मही देखते कि संगीत साहित्य सुरा सौंदर्य इत्यादि की सहायता के बिना कोई मन को एक ओर कर सकता हो, विशेषतः ईश्वर की ओर, जिसकी सभी बातें मन बुद्धि चित्त अहंकार से परे हैं । फिर हम क्यों न कहें कि प्रतिमा पूजन के विरोधो ईश्वर का पूजन तो क्या दर्शन भी नहीं कर सकते । विचार कर देखिए तो प्रतिमा पूजन से नास्तिकों के अतिरिक्त बचा कोई भी नहीं है । जो ईश्वर को मानेगा उसका निर्वाह किसी न किसी प्रकार की प्रतिमा के बिना नहीं हो सकता चाहे ध्यानमयी प्रतिमा हो चाहे शब्दमयी प्रतिमा हो,हैं सब हमारे ही मन और वचन का विकार और उस निराकार निर्विकार के महत्व का अभ्यास मात्र । पर क्या कीजिए ईश्वर को मान कर चुपचाप बैठे रहें अथवा मन में किसी मांति विचार आने ही न दें तो भी नहीं बनता। इसी से आस्तिक मात्र को उसकी प्रतिमा बनानी पड़ती है। जहां हमने मन अथवा बचन से कहा-'हे प्रभु हम पर दया करो', वहीं हम उर निराकार की छाती के भीतर मन की कल्पना कर चुके ।