पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४०१

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छल (२) ] ३७७ स्व र्थपरता से कोई बात खाली नहीं। उनका काम हो तो चाहे जैसी खुशामद करा लीजिए किंतु तुम्हारा प्रयोजन आ लगे तो मानो कभी की जान पहिवान ही नहीं । ऐसे लक्षण वालों से संसर्ग रखना छलविद्या सीखने में बड़ा सहारा देता है। किंतु ऐसे लोग इस देश के केवल बड़े ही नगरों में तथा अपने ही भूभाग में मिलते हैं । इसी से शास्त्रकारों ने देशाटन की आज्ञा दी है और पंडितमित्रता अर्थात् नीतिबेत्ता, स्वार्थसाधनतत्पर, बेद शास्त्रादि के बचनों में अपने मतलब का अर्थ निकाल लेने में समर्थ, अपनी कही हुई बात को नाना रूप से पलट देने के अभ्यासियों की संगीत भी इसी निमिन बतलाई है कि देश विदेश घूमने वा नाना देशवासियों का रंग ढंग देखने तथा छंटे लोगों से हेल मेल रखने से मनुष्य की आंखें खुल जाती हैं और झूठ बोलना पाप नहीं जान पड़ता। जैसा कि फारस के विद्वानों का वाक्य है कि 'जहां दीदा बियार गोयद दरोगा' । फिर क्या, जहां झूठ बोलने की हिचक जाती रही वहां छल सोखने का ढर्रा खुला हुआ ही समझिए । और यदि इन दोनों रीतियों अर्थात् देशाटन और गुरुधंटालों के संग से पूर्ण शिक्षा ग्रहण कर सकिए तो बरंगना देवी का चरणसेवा स्वीकार कीजिए, वे पका कर देंगी। क्योंकि ऊपर हप जिसने कपटी वालों के लक्षण बतला चुके हैं वे इनमें प्रायः सभी विद्य. मान होते हैं । ऊपर से भोली २ सूरत और मीठी २ बातें बना के परधन हरण का उन्हें दिन रात अभ्यास चहा रस्ता है। श्री तुलसीदास गोस्वामी त क ने जिनको महिमा में शाक्षी दी है कि "पर मन पर धन हरन को, गनिका बड़ी प्रवीन", जिनका सा रूप धारण कर के साक्षात् परमेश्वर ने भी छल हो किया है, अर्थात् समुद्र- मंथन के समय मोहनी अवतार ले के आप ने अपने प्यारे देवताओं को तो अमृत पिलाया था और आंखें भौहें मटका के राक्षसों को मदिरा पिला के पागल कर दिया था। जिन आर्य कुलकलंकों को पुराणों का नाम ही सुनते मृगी रोग आ चढ़ता है उनको तो बात ही और है नहीं तो मोहनी रूप की कथा से बुद्धिमान मात्र यह उपदेश लाभ कर सकते हैं कि जब भगवान् तक इस रूप में प्रकटित होकर ऐसा ही करते हैं तब दूसरे पुरुष समुदाय से संसर्ग रखने वालियों से सच्ची प्रोति और सरल व्यवहार को आशा करना निरा व्यर्थ है। निरे भोलानाथ तो उनके दर्शन ही मात्र से लंगोटी तक गंवा बैठते हैं और केवल विषपान के योग्य रह जाते ई निरे राक्षस अर्थात् इंद्रियों के गुलाम भी उन के हाथ से मोह मदिरा ही के मतवाले अर्थात् ज्ञानशून्य हो बैठते हैं । वहां तो केवल उन्हीं देवताओं का निर्वाह है जिनका लक्षण रामायण में "आए देव सदा स्वारथी। बचन कहहिं जनु परमारथी' तथा 'ऊंच निवास नीच करतूती । देखि न सकहिं पराई . विभूती" इत्यादि लिखा है। यदि ऐसे गुरुओं के निकट भी छल शिक्षा न प्राप्त कर सकिए तो आप का अभाग्य है। किन्तु बतलाने वाले इनसे भी अधिक श्रेष्ठ शिक्षक बतला गए है जो राजसभा अर्थात् कचहरी, दर्बार में रह के जीवनयात्रा करते हैं । अर्थात् वकील, मुखतार, झठे गवाह,पूरे अदालतबाज इत्यादि जिनका काम ही झूठ को सच,सच को झूठ कर दिखाना है। बस इन्ही का सेवन और देश देशांतर की नीति संबंधी पुस्तक तथा कुटिल नीतिज्ञों के जीवनचरित्र देखते सुनते समझते बूझते रहिए तो ईश्वर चाहेगा