पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४०३

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पुराण समझने को समझ चाहिए ] ३७९ स्वतंत्रता क्या इसलिए दी है हम ढिठाई सहित अपनी मूर्खता का पक्ष करके देशभाइयों की बुद्धि को भ्रष्ट करें? हमारे संस्कृत एवं भाषा के प्रसिद्ध विद्वानों को उचित है कि इस प्रकार के निरंकुश लोगों को रोकने का यत्न करें जिसका उपाय हमारी समझ में यह उत्तम होगा कि इस प्रकार के अनगढ़ स्वतंत्राचारियों को अपने २ नगरों में किसी प्रतिष्ठित सजन वा राजपुरुष की सहायता लेकर और सर्वसाधारण को समुझा कर लेक्चर न देने दिया करें और ऐसों के पत्र पुस्तकादि का प्रचार रोकने के लिए अपने हेती व्यब. हारियों को समय २ पर समझाते रहा करें। यदि सम्भव हो तो जाति के मुखिौं को इन्हें जातीय दंड देने में भी उत्तेजित करते रहें नहीं तो यह मनमुखी लोग धर्म और देशभक्ति की आड़ में भारत को गारत करने में कसर न करेंगे। इन्हें हम यह तो नहीं कह सकते कि देश और जाति के आंतरिक बैर रखते हैं पर इतना अवश्य कहेंगे कि कोई सामाजिक भय न देख कर स्वतंत्रचित्तता की उमंग में आकर, नामवरी आदि के लालच से,विना समझे बूझे केवल अपनी थोड़ी सी बुद्धि और विद्या का सहारा ले के हमारे पूर्वजों की उत्तमोत्तम रीति, नीति, विद्या, सभ्यतादि को दूषित ठहरा के सर्वसाधारण के मन में भ्रमोत्पादन करते रहते हैं। अतः यह निरक्षर स्त्रियों और अपठित प्रामवासियों से भी अधिक मूर्ख हैं क्योकि हमारी स्त्रियां और गंवार भाई और कुछ समझें वा न समझें पर इतना अवश्य समझते हैं कि हमारे पुरखे मूर्ख न थे। हमारी समझ उनकी बातें आवे वा न आवै किंतु हमारा भला उन्ही की चाल चलने में हैं। इस पवित्र समझ की बदौलत यदि अधिक नहीं तो इतना देश का हित अवश्य हो रहा है कि ग्रामों में और घरों के भीतर हमारी सनातनी मर्यादा आज भी बहुत कुछ बनी हुई है। किंतु बाबू साहबों को सभाओं, लेकचरों, पुस्तकों और पत्रों में जहाँ ईश्वर, धर्म और देश हितषितादि ही के गीत बहुतायत से गाए जाते हैं वहां भी आर्यत्व की सूरत कोट ही बूट पहिने हुए देख पड़ती है। फिर क्यों न कहिए कि इन देशोदारकों को पूर्ण प्रयत्न के साथ रोकना चाहिए जो पढ़ लिख कर भी इतना नहीं समझते कि सहस्रों रिषियों की, सहस्त्रों वर्ष के परिश्रमोपरांत स्थिर की हुई, पुस्तकें तथा मर्यादा, जिन्हें सहस्त्रों विद्वान मानते चले आए हैं, वह केवल थोड़े विदेशियों तथा विदेशीय ढर्रे पर चलने वाले स्वदेशियों की समझ में न आने से क्योंकर दूषणीय और त्याज्य हो सकती है। जब हम देखते हैं कि दूसरे देश वाले कैसे ही क्यों न हो जाय किंतु अपनी भाषा भोजन, मेष, भाव, भ्रातृत्व को हानि और कष्ट सहने पर भी नहीं छोड़ते और हमारे नई खेप के हिंदुस्तानी साहब इनकी जड़ काटने ही में अपनी प्रतिष्ठा और देश की भलाई समझते हैं, तब यही कहना पड़ता है कि यदि यह लोग रोके न जायंगे तो एक दिन बड़ा ही अनर्थ करेंगे, जातित्व का नाश कर देंगे और देश का सत्यानाश । क्योंकि हमारे देश की राजनैतिक, सामाजिक, शारीरिक, लौकिक, पारलौकिक भलाई का मूल हमारा धर्म है और धर्म के परमाश्रय वेद शास्त्र पुराण इतिहास तथा काव्य हैं। किंतु बाबू साहबों की छुरी इन्ही वेदादि पर अधिक तेज रहा करती है और मंडन खंडन में चाहे कुछ संकोर भी आ जाय किंतु धर्मदेव की निंदा स्तुति में तनिक भी नहीं हिचकते। इनसे वो मौलवी साहब के विद्यार्थियों को हम बच्छा कहेगे। बड़े भाई, पिता, गुरू