पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४०६

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[प्रतापनारायण-ग्रंथावली हों तो आशा है कि पाठकगण स्वयं ब्रह्म बन २ कर कर्तव्याकर्तव्य की विता से मुक्त हो जायंगे। किंतु साथ ही कुटुम्बादि की ममता से भी वंचित हो बैठेंगे जो अपने और पराए सुख का मूल है। यह न हुवा तो मनुष्य में भी पाषाण खंड में भेद ही क्या ? फिर भला चलते फिरते कर्तव्यपालन समर्थ प्राणी को अकर्ता पभोक्ता बना बैंठने का पाप किसको होगा ? यदि "स्वायं समुदरत्याशः" का मंत्र लेकर केवल हुजूरों की हां मे हां मिलाया करें अथवा रुपए वालो को बात २ में धर्ममूति धर्मावतार बनाया करें वा भोलेभाले भलेमानसों को गीदरमभको दिखाया करें तो धन और खिताबो की कमी न रहेगी, किन्तु हृदय नमय हो जायगा, उसे क्योंकर धयं प्रदान करेंगे ? ऐसी २ अनेक बातें हैं जिन पर लेखनी को कष्ट देने से न अपना काम निवछता दिखाई देता है न पराया, इसीसे जब सोचते हैं तब चित्त यही कहने लगता है कि क्या लिखें ? यो कलम ले के लिखने बैठ जाते हैं तो विषय आजकल के नौकरी के उम्मीदवारों की तरह एक के ठोर अनेक हाजिर हो जाते हैं । पर जब उनकी विवेचना करते हैं तो यही कहना पड़ता है कि जिन बातों को बीसियों बार बोसियों प्रकार, हम ऐसे बीसियों लिक्खाड़, लिख चुके हैं उन्हें बार २ क्या लिखें? यदि मित्रों से पूछते हैं कि क्या लिखें तो ने मुंह से बातें सुनने में आती है । सब के सब अपनी २ इफलो अपना २ राग ले बैठते हैं जिनमे यह सम्भावना तो दूर रही कि दूसरो को रुचि होगी, कभी २ लिखने वाले ही का जी नही भरता। फिर क्या लिखे ? लोग कहते हैं कि लिखा पढ़ी बनाए रखने से देश और जाति का सुधार होता है । पर हम समझते हैं यह भ्रम है । जिस देश और जाति को बड़े २ रिषियों मुनियों कवियों के बड़े २ प नही सुधार सकते उसे हम क्या सुधारेंगे? जो लोग स्वयं सुधरे हैं उन्हें हमारे लिखने की आवश्यकता क्या है और जिन्हें सुधरने बिगड़ने का ज्ञान ही नहीं है उनके लिए लिखना न लिखना बराबर है, फिर क्या लिखै ? और न लिखें तो हाथों का सनीचर कैसे उतरे ! जब महीना पाता है तब बिना लिखे मन नहीं मानता । यह जानते हैं कि हिन्दी के कदरदान इतने भी मही है कि जिनकी गिनती में एक मिनट की भी देर लगे और लेटरपेपर का आधा पृष्ट भी भरा ग सके । इसी से जो कोई उत्तम से उत्तम पुस्तक वा पत्र प्रकाश करता है वह अंत मे निरास ही होता है अथवा हमारी तरह किसी सजन सुशील सहृदय मित्र के माथे देता है। पर क्या कीजिए, लत से लाचारी है, उसी के पीछे जहां और हानि तथा कष्ट उठाने पड़ते हैं वहां यह चिता भी चढ़ाई रखनी पड़ती है कि क्या लिखें ? किन्तु जब इसकी छान बिनान करते हैं तो ऊपर लिखी हुई अड़चले आ पड़ती है। इसी से हमने सिद्धांत कर लिया है कि कुछ सोचै न किसी से पूछे, बब जैसी तरंग का जाय तब तैसा लिख भार। उससे कोई रीमें तो बाह २, खीझ तो वाह २। किसी की बने तो बका से, बिगड़े तो बला से । हम ने न दुनिया भर के सुधार बिगारका ठेका लिया है न विश्वमोहन का मंत्र सिद्ध किया है। हां, लिखने का रोग जगा बैठे हैं, उसके लिए सोचा विचारी अथवा पूछताछी क्या कि क्या लिखें क्या न लिखे ? खं० ८, सं० १२ ( जुलाई, ह. सं०८)