पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४२

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

पनारायण-ग्रंथावली पाठशाला स्थापित करी इत्यादि २ यही देशोन्नति के मूल हैं। पर हमारी समझ में और प्रत्येक सहृदय पुरुष के विचार में देशोन्नति तो बड़ी बात है, सचमुच आत्मोन्नति तथा गृहोन्नति भी इन ऊपर वाली बातों से होनो कठिन है । हां उन्नत अवस्था में यह धर्मादिक सर्व बातें सहज साध्य होकर, शाखा प्रशाखा एवं हस्तपादादिक की भांति, उन्नति के चिन्ह मात्र तो बन जाती हैं पर उन्नति का मूल, उन्नति का जीवनास्ति दशा और प्रलयंगतावस्था में उन्नति का सृजक तथा पुनः प्रकाशक केवल प्रेम है । प्रेम के बिना कभी, कही, किसी प्रकार, किसी की उन्नति न हुई है, न होगी, न होती है। प्यारे देशोन्नत्याभिलाषीगण ! यह न कहना कि अच्छी सबसे निराली तान अलाप रहे हैं । नहीं, रामायण खोल के देखिये, भगवान रामचन्द्रजी दंडकारण्य को कोई सेना, कोई कोत लेकर न गये थे। सीता वियोग जनित द:ग्व के कारण बद्धि भी कदाचित ठिकाने न हो ( देहधारी मात्र को घोर दुःख में विद्या भूल सी जाती है, बुद्धि भी ठिकाने नहीं रहती) । बाह्य धर्म के निर्वाह की संभावना नहीं है क्योंकि 'मार्गे शद्रवदाचरेत' नीति में लिया है। पर हां वह प्रेम शक्ति ही थी जिसके बल से हमारे उस पूज्यपाद ने निरे बनवरों को अपना बना लिया। लोक रावण ऐसे शत्रु पर विजयी होकर पुनः साम्राज्य श्री को हस्तगण किया। इधर महाभारत का अवलोकन कीजिये। एक से एक धर्म तत्वज्ञ, एक से एक महारथी योधा, एक से एक राज राजेन्द्र केवल भ्रातृस्नेह के बिना, बाहरवाला कोई न मिला तो, आपस ही में ऐसे कट मरे कि आर्यावर्त का बंटाढार कर दिया । क्या हास्यास्पद वह पुरुष है जो वृक्ष के मूल का सेवन न कर के डाल २ पनी २ में जल छोड़ता फिरता है। भला वह पृष्ट होगी कि और सड़ जायगी ! क्या प्रेम के बिना धर्म धनादिक कभी हो सकते हैं ? यदि हो भी गये तो स्थिति उनकी के दिन ? न जाने लोग मुख्य तत्त्व की ओर क्यो नहीं ध्यान देते, नहीं तो धर्म धन बल विद्यादि प्रेम के बिना है ही क्या ? शास्त्र में लिखा है 'यतोऽभ्युदय निश्रेयससिद्धिः स धर्मः'। वह अभ्युदय कब होगा? तभी न जब पंडित महाराज की विद्या, ठाकुर साहब का बल, लालजी के रुपये, महतोभाई के हाथ पांव परस्पर एक दूसरे के कार्य साधन करेगे? चारों एकत्रित कब होंगे? जब सबके अन्तःकरण प्रेम मे पूर्ण हो जायेंगे । नहीं सब बातें तो सब किसी को प्राप्त होती ही नहीं हैं । वह अपनः पोथी चाट लिया करें, वह अपनी अशरफी गला के पी जाया करें। किसान तो तुच्छ भीव है, उसका उगाया अन्न वे पृथ्वी के शिरोमणि कमे खायंगे ? उसकी भी बला से । उसने अपने परिश्रम से जोता बोया है, तुमको क्या ? ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनसे सिद्ध है कि सांसारिक अभ्युदय क्या जीवन जात्रा भी प्रेम बिना असंभव है । रही नियस सिदि,सो उसके लिये, म सब ओर से चित्तवृत्ति एकत्र करके ईश्वर में लगाना / प्रेम ही है। यदि पोषियों को सच्चा मानो तो मरणांतर जीवात्मा का ईश्वर में मिल जाना भी प्रेम ही है । सदराश यह कि यदि 'यतोऽभ्युदय निश्रेषस सिद्धिः स धर्मः' है. तो प्रत्येक देशोन्नतिकारको मान ही लेना पड़ेगा कि 'प्रेम एव परोधर्मः' | अब कहो आस्तिकजी ! जिसने रम धर्म, का त्याग 3.८ %3 135/- 13. Yest KARO