पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४४

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

२२ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली सत्कर्मों का सेवन, चोरी, जारी आदि का त्याग इत्यादि २ तो लिखे हुए पाए जाते हैं और वास्तव में यह मानवीय हैं, पर इन्हीं के आगे-पीछे झूठ लालच के साथ थोड़ी सी बे सिर पर की अंड-बंड बातें ऐसी मिलाई गई हैं जिनके कारण बिचारे सीधे-साधे विश्वासी, बुद्धि की आँखों पर पट्टी बांध कर, तुच्छ २ विषयों के लिये, स्वदेशियों से जुतहाव किया करते हैं। क्या ही अच्छी बात होती यदि हमारे आर्यसमाजी भ्रातृगण समझ लेते कि प्रतिमा पत्थर तो है ही, हमें एक पत्थर के लिये सर्वदा मान्य देश गुरु पंडितों को पोप कहके चिढ़ाने तथा अनेक कामों में परस्पर सहायता करने के बदले उनको अपना बुरा बनाने की क्या पड़ी है ? ऐसे ही ब्राह्मण देवता विचार लेते कि मूर्ति तो साक्षात् ईश्वर की प्रतिमा है। मौर ईश्वर म प्रशंसा से प्रसन्न होता है न निंदा से रुष्ट होता है । अथवा बुह आप समझ लेगा, हमें क्या प्रयोजन है कि एक वेदावलंबी भव्य युवक समाज को गाली दे देकर विरोध का मूलारोपण करें। यद्यपि वेद, धर्म और ईश्वर को दोनों मानते हैं, देशोदार दोनों को अभीष्ट है पर प्रेमतत्व न जानने से, मत के आग्रह के मारे, गोस्वामी तुलसीदासजी के इस बचन का उदाहरण बन रहे हैं कि 'बातुल भूत बिबस मतवारे । ये नहि बोलहिं बचन सम्हारे ।' हम नहीं चाहते कि किसी मत विशेष के गुण दोष दिखाकर इस लेख को आल्हा का पंवारा बनावें, पर इतना तो चिता देना चाहते हैं कि सिवा कोरी बकवाद के और सत्यानाश का मूल परस्पर विवाद के मत से कोई आशा मत करो। इनमें कुछ भी सार होता तो क्यों दुष्ट यवन हमारी नाना जातना कर डालते और एक से एक उदरंभर कान फूंकने वाले गुरु, एक से एक मारण मोहन करने वाले ओझा, एक से एक प्रचंड चामुंडा और भयानक भैरवादि, जिनके पोछे हम ईश्वर से विमुख, देश भाइयों से विमनस्क हो गए, कोई कुछ न कर सका ? करता कौन ? बिपत्ति में तो एक धर्म ही सहायक होता है। उस धर्म को हमने धर्माभास से बदल डाला। प्रत्यक्ष से बढ़ के कौन प्रमाण है ? यदि यह मत धर्म होते तो हमारी रक्षा न करते ? अब देशोन्नत्यभिलाषी सनन समूह स्वयं विचार देखें कि यह धर्म मंतव्य है ? पर हां यह अपने ही हैं अतएव प्रत्यक्ष में इनकी निंदा न करनी चाहिए, बरंच जिधर पने सहवतियों को अधिक रुचि हो उधर का सा अपना भी रंग ढंग बना रहे, जिसमें कोई घृणा करके व्यर्थ में पामाजिक प्रेम पथ का अवरोधक न बन जाय । पर अनःकरण से किमी मत का कट्टर कदापि न बनना चाहिए । क्योंकि जो सच्चे जी मे स्वदेश का हित चाहते हैं उनका तो प्रेम पंथ निरालोई है। उस धर्म के अनुष्ठान की विधि तो हमसे पूछो। सबसे पहिले देश भक्त को चाहिए कि दत्तचित्त होके अपनी उन्नति करो। उसके लिए मूल मंत्र तो बस यही है कि आलस्योइ मनुष्याणां शरीरस्थो महान रिपुः । यह कोई दुःसाध्य बात नहीं है। केवल थोड़े दिन कुछ अाचन सी तो जान पड़ेगी पर कष्ट किंचित भी न होगा। जी कड़ा करके नित्य कृत्यों का समय नियत कर देने से सब हो जायगा। तदनंतर हाय पाव की भांति विचारशक्ति से भी काम देते रहना चाहिए। इसके लिए भी केवल इतमा ही कर्तव्य है कि प्रत्येक छोटे बड़े