पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४५

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देशोन्नति ] २३ विषय में, जहाँ तक बुद्धि दौड़ सके, सोच लिया करे कि अमुक बात में जु यों होगा तो क्या होगा, यों होगा तो क्या होगा, बस । अपनी हानि लाभ कौन नहीं समझता । जिसमें कुछ भी हानि देख पड़े उस काम को छोड़ दे। पर हां कोई ऐसा काम अवश्य करता रहे जिसमें अपने को वा पराए को अति कष्ट न हो और निर्वाह मात्र के लिये धन मिलता रहे तथा व किसी दशा में आय से अधिक व्यय न होने दे, नामवर व अमीर बनने के लालच में न फंसे और ऐसा धंधा न मुड़ियावे जिसमें दिन भर छुट्टी हो न मिलती हो । बारह घंटे दिन में जिसे न्यूनातिन्यून दो घंटे भी अवकाश नहीं रहता उसे हम मनुष्य कहने में हिचकिचाते हैं। उस छुट्टी के समय संसारी झगड़ों को छोड़ ईश्वर का भजन तथा निर्दोष जी बहलाव भी अवश्य ही चाहिए। निरदोष मन बहलाब से हमारा प्रयोजन है जिसमें धन, बल और मान की हानि न हो । अनेक विषय की पुस्तकें (विशेषतः कविता और नीति की, क्योंकि पहली सहृदयत्व की जननी है दूसरी बुद्धि- बद्धिनी हैं ) देखना, बाटिका तथा मैदानों में घूमना, गाना बजाना, उछलना कूदना इत्यादि जिसमें अधिक रुचि हो करना। पर शारीरिक व्यायाम, चाहे बिना रुचि भी हो, अवश्यमेव करना । कसी ही दशा मे चिता को पास न फटकने देना चाहिए । सब प्रकार के, सब श्रेणो के, सब बय के, सब मत के लोगों की संगति करना पर उनके अनुगामी न हो जाना । अपने शरीर स्थान बाणी वस्त्र इत्यादि को ऐसा न रखना जिससे किसी को घृणा उत्पन्न हो । ऐसे २ और भी बहुत से काम हैं जो विचार शक्ति आप सिखा देगी, निरालसित्व और जिंदादिली आप करा देगी। उनको करते रहने से, थोड़े से काल में, आत्मोन्नति अपनी मिति तक पहुंच जायगी । रही गृहोन्नति, उस के लिए केवल इतना ही कर्तव्य रह जायगा कि अपने कुटुंबियों, आश्रितों तथा सहवासियों से ऐसे बर्ताव रखना जिसमे वे लज्जित, भयभीत, विरक्त न होने पावें । पर आप भी उनसे ऐसा न रह के मित्र भाव से रहना चाहिए । जिसके साथ निष्कपट हो के अपनपी का व्यवहार किया जाता है वह कुछ दिन में निश्चग अपना हो जाता है । फिर जब तुमने उनको अपना अभिन्न हृदय बना लिया तो बस पर बाले एवं पड़ोस वाले, तुम्हार सच्चे सहानुभावक, सच्चे सहायक, सच्चे आज्ञाकारी बन जायंगे । स्मरण रहे कि आत्मोन्नति के नियम न टूटने पावें तो गृहोन्नति कुछ बहुत कठिन नहीं है । और जो इन दोनों की उन्नति में पूर्ण समर्थ है अकेला वही देशोन्नति के लिए कटिबद्ध हो सकता है और कृतकार्य हो सकता है। क्योंकि हम कह चुके हैं कि प्रेम हो सब उन्नति का मूल है । जिसने अपनी देह एवं गेह से प्रेम कर लिया उसे अब प्रेम का अभ्यास हो गया । और प्रेम का अभ्यासी अपने कार्य सिद्धि में तथा दूसरो को अपने ढंग का बना लेने में पक्का होता ही है । जो दूसरों को अपना सा कर सकता है वह एक देश का क्या जगत् को थोड़ी कठिनता से समुन्नत कर दे। खं० १, सं० ६, ७ ( १५ अगस्त, सितंबर सन् १८८३ ई०) खं० २, सं. २, ५, ६, ६,१० (अप्रैल, जुलाई, अगस्त, दिसंबर सन् १८८४ ई.)