पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४४१

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होली है ] ४१७ जुगनू" दिखाई देता है। इससे और मनोविनोद के अभाव में उसके सेवकों के लिये कमी २ उसका सेवन कर लेना इतना बुरा नहीं है जितना मृतचिन पर बैठना । सुनिए ! संगीत, साहित्य, सुरा और सौंदर्य के साथ यदि नियमविरुद्ध बर्ताव न किया जाय तो मन की प्रसन्नता और एकाग्रता कुछ न कुछ लाभ अवश्य होता है, और सहृदयता को प्राप्ति के लिये इन दो गुणों की आवश्यकता है, जिनके बिना जीवन को सार्थकता दुःसाध्य है। बलिहारी है महाराज इस क्षणिक बुद्धि की । अभी तो कहते थे कि मन को किसी झगड़े में फंसने न देना चाहिए, और अभी कहने लगे कि मन को एकाग्रता के बिना सहृदयता तथा सहृदयता के बिना जीवन को सार्थकता दुःसाध्य है। धन्य हैं यह सरगापत्ताली बात ! भला हम आपको अनुरागी समझें या विरागी ? अरे हम तो जो है वही हैं, तुम्हें जो समझना हो समझ लो। हमारी कुछ हानि नहीं है । पर यह सुन रक्खो, सीख रक्खो, समझ रक्खो कि अनुराग और विराग वास्तक में एक ही हैं। जब तक एक ओर अचल अनुराग न होगा तब तक जगत के खटराग में विराग नहीं हो सकला, और जब तक सब ओर से आंतरिक विराग न हो जाय तब तक अनुराग का निर्वाह सहज नहीं है । इसी से कहते हैं कि हमारी बातें चुपचाप माना हो लिया करो, बहुत अक्किल को दौड़ा २ के थकाया न करो। इसी में आनंद भी आता है, और हृदय का कपाट भी खुल जाता है । साधारण बुद्धि वाले लोग भगवान भूत गय श्मसानबिहारी, मुंडमालाधारी को वैराग्य का अधिष्ठाता समझते हैं, पर वह आठों पहर अपनी प्यारी पर्वतराजनंदिनी को वामांग ही में धारण किए रहते हैं, और प्रेमशास्त्र के आचार्य हैं। इसी प्रकार भगवान कृष्णचंद्र को लोग शृंगार रस का देवता समझते हैं पर उनकी निलिप्तता गीता में देखनी चाहिए जिसे सुना के उन्होने अर्जुन का मोह बाल छुड़ा के वर्तमान कर्तव्य के लिये ऐसा दृढ़ कर दिया था कि उन्होंने सबको दयामया, मोहममता को तिलांजलि दे के मारकाट आरंभ कर दी थी। इन बातों से तत्वग्राहिणी समझ भली भांति समझ सकती है कि भगवान प्रेमदेव की अनंत महिमा है ! वहाँ अनुरागविराग, सुखदुःख, मुक्तिसाधन सब एक ही हैं । इसी से सच्चे समझदार संसार में रह कर सब कुछ देखते सुनते, करते धरते हुए भी संसारी नहीं होते। केवल अपनो मर्यादा में बने रहते हैं। और अपनी मर्यादा वही है जिसे सनातन से समस्त पूर्वपुरुष रक्षित रखते आए हैं, और उनके सुपुत्र सदा मानते रहेंगे। काल, कर्म, ईश्वर, अनुकूल हो या प्रतिकूल, सारा संसार स्तुति करे वा निदा, बाह्य दृष्टि से लाभ देख पड़े वा हानि, पर वीर पुरुष वही है जो कभी कहीं किसी दशा में अपनेपन से स्वप्न में भी विमुख न हो। इस मूल मंत्र को भूल के भी न भूले कि जो हमारा है वही हमारा है। उसी से हमारी शोभा है, और उसी में हमारा वास्तविक कल्याण है। ____एतदनुसार आज हमारी होली है। चित्त शुद्ध करके वर्ष भर की कही सुनो क्षम ! कर के, हाथ जोड़ के, पांव पर के, मित्रों को मना के, बाहें पसार के उनसे मिलने और