४२६ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली कतिपय सजनों ने उनसे हमारे गुण दोष ऐसी रीति से वर्णन कर दिए कि बाबा जी महाराज हमारे मौखिक मित्र बन गए । आप समझिए हम अन्तर्यामी तो हैं ही नहीं कि कुछ दिन परिचय पाए बिना किसी का आंतरिक भेद जान सकें। अतः उनके उपरी सुव्यवहार पर हम भी रीझ गए । विशेषतः वह चरक सुश्रतादि के अनुकूल हिन्दी में एक पुस्तक बनाने और कानपुर मे सर्वसाधारण के सुभीने के योग्य देशाय औषधालय स्थापन करने की इच्छा प्रकाश करते थे तथा इन दोनों विषयो मे हम से सहायता लेने के उत्सुक जान पड़ते थे और हम भी इन दोनो बातो की देश के पक्ष में बड़ी भारी आव- श्यकता समझते हैं इससे और भी जी खोल के मिलना उचित समझ बैठे ! इसे पाठकगण निरी देशहितैषिता ही न समझें, हमने एक विद्वान वैद्य के द्वारा अपने रोग की निवृत्त तथा निज मित्रों के लिए चिकित्सा संबन्धी सुविधा का भी सुभीता समझा था। इस प्रकार हमारा उनका मेल थोडे ही दिन में इतना हो गया कि जहां वह दूसरों के यहां बग्घी पर चढ़े बिना जाते ही न थे वहां हमारे यहां पैदल चले आते थे और घंटों पड़े रहते थे। इस बीच में यद्यपि कई बार उनकी बातो तथा दूसरो के प्रति व्यवहार के द्वारा यह विदित हो गया कि जैसा हमने आरंभ मे समझा वैसा नहीं है तथापि हमे कई बार इस बात का अनुभव हो चुका है कि चतुर स्वार्थी दूसरो के साथ चाहे जैसा बर्ताव करे पर जिन लोगो की मित्रता के लिए प्रसिद्ध हो जाते हैं वा जिन लोगो को परीक्षा द्वारा अपना हितैषो समझ लेते हैं उनके साथ बुराई नहीं करते ! इसी विचार से हमने उनका अविश्वास करना उचित न समझा क्योकि हमने उनके साथ भलाई ही की थी (जिसका वर्णन व्यर्थ है ) और यथासामर्थ्य पूरा हित करने की छा रखते थे ( यह बात उनसे भी छिपी न थी ) यथा यह भी विचार था कि स्वास्थ्य लाभ के उपरांत ऐमी युक्तियां बतलाते रहेगे कि नगरवासी इन्हें महात्मा समझ के श्रद्धा करें और परस्पर दोनों का उपकार होता रहे । यह विचार हमारा नया न था, कई बार कई लोगो को महिमा इसी के द्वारा बढ़ाने मे कृतकार्य हो चुके हैं, पर इस अवसर पर 'मन के मन ही माहि मनोरथ वृद्ध भए सब' । आपने हमारी चिकित्सा आरम्भ की और पहिले पांच सात दिन उसके द्वारा हमें लाम भी उचित रूप से जान पड़ा । यथाशक्ति इसके पूर्व भी धन के द्वारा सुश्रुषा कर चुके थे और अब भी उनसे कहा कि-संकोच न कीजिएगा, औषधादि के लिए आव- श्यकता हो सो बतलाते जाइएगा। मित्रता का अर्थ यह नहीं है कि बड़ी भारी आव- श्यकता के बिना परस्पर की तनिक भी हानि की जाय-इस पर आपने ईश्वर और धर्म सबको साक्षी बना डाला कि मेरा तुम्हारा व्यवहार स्वच्छ ही रहेगा। इस पर हमने भी समझ लिया कि फिर समझेगे इसमें बात क्या है। अस्तु औषधि बदली गई और तीन ही चार दिन के उपरांत कष्ट की वृद्धि आरम्भ हो गई। इसकी चर्चा की तो उत्तर मिला-~चार ही छः दिन में कष्ट जावा रहेगा, घबराओ नहीं । पर चार छः दिन में कष्ट तो क्या जाता रहा सामथ्र्य इसनी भी जाती रही कि जहां चिकित्सा के पूर्व घूमा करते
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