पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४६१

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स्वतंत्र ] ४३७ हैं कि जो अपने ही का नही हुआ वह हमारा क्या होगा ? बुद्धिमानों की आशा है कि जिसके साथ मित्रता करनी हो उसका पहिले यह पता लगा लो कि वह अपने पहिले मित्रों के साथ कैसा बर्ताव रखता था। रहे अनुदार स्वभाव वाले गौरांग, वह विद्या, बुद्धि, सौजन्य गादि पर पीछे दृष्टि करते होंगे, पहिले काला रंग देख कर और नेटिव नाम ही सुन कर घृणापात्र समझ लेते हैं। हां अपना रुपया और समय नष्ट करके, मानापमान का विचार छोड़ के, साधारणों की स्तुति-प्रार्थनादि करते रहे तो जबानी खातिर वा मन के धन की कमी नहीं है........... फिर उसे पा के कोई सच्चा स्वतंत्र क्या होगा? इसके सिवा किसी से ऋण लें तो चुकाने में स्वतंत्रता नहीं, कोई राजनियम के के विरुद्ध काम कर बैठे तो दंड प्राप्ति में स्वतंत्र नहीं, नेचर का विरोध करें तो दुख सहने में स्वतंत्र नहीं. सामर्थ्य का तनिक भी उल्लंघन करने पर किसी काम में स्वतंत्र नहीं, कोई प्रबल मनुष्य पशु वा रोग आ घेरे तो जान बचाने में स्वतंत्र नहीं, मरने जीने में स्वतंत्र नहीं, कहां तक कहिए, अपने सिर के एक बाल को इच्छानुसार उजला काला करने में स्वतंत्र नहीं, जिधर देखो परतंत्रता ही दृष्टि पड़ती है। पर आप अपने को स्वतंत्र ही नहीं, बरंच स्वतंत्रता का तत्त्वज्ञ और प्रचारकर्ता माने बैठे हैं ! क्या कोई बनला सकता है कि यह माया-गुलाम साहब किस बात में स्वतंत्र हैं ? हां हमसे सुनो, आप वेदशास्त्र पुराणादि पर राय देने में स्वतंत्र हैं। संस्कृत का काला अक्षर नहीं जानते, हिंदी के भी साहित्य को खाक धूल नहीं समझते, पर इसका पूरा ज्ञान रखते हैं कि वेद पुराने जंगलियो के गीत हैं, वा पुराण स्वाथियों को गढ़ी हुई झूठी कहानियां है, धर्मशास्त्र में ब्राह्मणो का पक्षपात भरा हुआ है, ज्योतिष तथा मंत्र शाखादि ठगविद्या है । ऐसी २ बे सिर पैर की सत्यानाशी रागिनी अलापने में स्वतंत्र है । यदि ऐसी बातें इन्ही के पेट मे ८नी रहें तो भो अधिक भय नहीं है। समझने वाले समझ लें कि थोड़े से आत्मिक रोगी भी देश में पड़े हैं, उनके लुढकते ही "खसकम जहानाक' हो जायगा पर यह स्वतंत्रता के भुक्खड़ व्याख्यानों और लेखों के द्वारा भारत-संतान मात्र को अपना पिठलगा बनाने मे सयत्न रहते हैं, यही बड़ी भारी खाध है। यद्यपि इन के मनोरथों की सफलता पूरी क्या अधूरी भी नही हो सकती, पर जो इन्ही के से कच्ची खोपड़ी और विलायती दिमाग वाले हैं वह बकवास सुनते ही अपनी बनगेली चाल में दृढ़ हो जाते हैं और 'योंही रुलासो बैठी थी ऊपर से भैया आ गया' का उदाहरण बन बैठते हैं । तथा इस रीति से ऐसों की संख्या कुछ न कुछ बढ़ रहती है, और संभव है कि यों ही ढबरा चला जाय तो और भी बढ़ कर भारतीयत्व के पक्ष में बुरा फल दिखा। वहीं विदेश के बुद्धिमान तनिक भी हमारे सद्विद्या भंडार से परिचित होते हैं तो प्राचीनकाल के महषियों की बुद्धि पर बलि २ जाते हैं, बरंच बहुतेरे उनकी आज्ञा पर