पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४८

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली सभी जानते हैं, रुपये का काम रुपये ही से चलता है। और यह भी प्रायः सभी को भली भांति विश्वास है कि 'दिन दमाके एक से नहीं रहते। संसार में जो आया है, एक न एक दिन उस पर विपत्ति पड़ती है। और यह तो सच ही है कि "आपद काल में कोई किसी का साथी नही होता"। विशेष कर इस आर्यावर्त में, जहाँ का मेवा फूट और बेर है, वे प्रयोजन एक दूसरे को जड़ खोदने को तय्यार रहता है यह तो कहां संभव है कि कोई किसी के काम आये। हां, बाजे सर्व हितेच्छुक महाशयों पर कुदिन आता है तो असंख्य लोगों को दुःख होता है। प्रायः सभी चाहते हैं कि इनका दुःख दूर हो तो अच्छा है, पर निरे चाहने मात्र से तो कुछ होता नहीं। लाखों दुःख ऐसे हैं जो रुपये बिना जा ही नहीं सकते। रुपया आवे तो कहां से आवे। आजकल हमारा देश आगे का सा समुन्नत तो हई नहीं, दिन दिन घर के धान पधार में मिलते हैं। दूसरे देशों से यहां रुपया आना तो बात ही क्या है, घर की पूंजी बिलायत जाया न करे यही गनीमत है। फिर भला रुपए की मदद कौन किसकी कर सकता है ? यदि कही सैकड़ों में से किसी एक उदार पुरुष ने कुछ करना बिचारा भी तो क्या करेगा ? हमारे राजा अथच धनाढ्यों से कुछ आसरा ही न ठहरा। फिर भला जो विसी पर कोई दैवी आपदा आ पड़े तो सिवा रोने के क्या बश ! इसीलिये बंगाल के कई एक विद्वानों ने यह युक्ति निकाली है कि अपनी अपनी सामर्थ्य भर लोग कुछ रुपया इकट्ठा करके जातीय धन भंडार स्थापित करें, जो समय पड़ने पर काम आवे। संप्रति उनका संकल्प पांच लाख रुपया एकत्र करके अपनी ओर से विलायत में एक प्रतिनिधि रखने का है । हमारी समझ में उन महाशयों का यह उद्योग अत्यंत प्रशंसनीय है। पर यदि केवल पांच ही लाख की कैद न होती, यह होता कि जहाँ तक हो सकता ; प्रतिवर्ष वा प्रतिमास रुपया इकट्ठा होता और भंडार में रखने के बदले किसी व्यापार मे लगा के उसके वृद्धि का प्रयत्न होता रहता और देश में जब कभी किसी पर कोई आफत आती तो उचित रीति पर उसका सहाय किया जाता तो परमोत्तम था। हमारे पश्चिमोत्तरवासी भ्रातृगण किस नींद सो रहे हैं ? क्या इनको नहीं मालूम कि रुपया ही सब बलायें रद्द करता है ? अथवा इन्हें यह निश्चय है कि "हमसे खिलाफ होकर करेगा जमाना क्या ?" भला हो वंगाली भाइयों का जो अधिक नहीं तो जबानी ही होरा मचाते हैं। यहां तो एक का घर जले दूसग तमाशा देखे । बड़ा भलामानुष हो तो वह राह कतरा के निकल जाय । फिर क्यों नहीं जातीय भंगार का उद्योग नहीं करते ? भाइयो ! "अग्र सांची सदा सुखी" । जब सिर पर आ पड़ती है तब कुछ करते धरते नहीं बनता । इससे शीघ्र उठो और अपने हित का साधन करो। उपाय न जानते हो तो हमसे सुनो। प्रत्येक स्थान पर सर्वसाधारण सभा स्थापन हो जाना चाहिए। उसके मुखियाओं का मुख्य कर्तव्य यह है कि मत मतान्तर का झगड़ा, जो बखेड़े की जड़ है, उसका तो नाम न ले । मनुष्य मात्र को अपनी सभा का मेंबर समझे । दस वर्ष के बच्चे से लेकर सौ वर्ष के बुड्ढे तक और ब्राह्मण से लेकर चर्मकार तक को सभा में सहाय करने का अधिकार