पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४९

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कान्यकुब्ज ही की सबसे हीन दशा क्यों है ] दे। हंसी की परवाह न करके, मुंह पर ताने की बातें, उनके हाथ जोड़ के, एहसान ले के, समझा बुझा के, येन केन प्रकारेण धन संचय करें, और दूसरों को भी ऐसा ही परामर्श दें। इधर के लोगों का एक यह भी स्वभाव है कि किसी अपने बराबर वाले को जो कुछ करमा देखेंगे, शेखी के मारे उसमें योग देने में अपनी मानहानि समझ के, अंट संट दस्तखत कर देंगे। पर देती समय मुंह चुरावेगे । इसका यह उपाय है कि इस बारे में चिट्ठा उट्ठा न बनाया जाय । एक सन्दुक रखी रहे, उसमें चाहे तो कोई महाराजाधिराज एक पैसा छोड़ दें, चाहे कोई भिक्षक लाख रुपए की कोई चीज डाल दे। पर नियत साप्ताहिक, मासिक, वार्षिक, जैसा समझौता हो, अवलम्ब करना चाहिये। फिर नियत समय पर दस जानकार लोगों की सन्मति से वह आमदनी किसी रोजगार में लगती रहना चाहिये। उसका अधिकार किसी एक को न सौंप देना चाहिये, बल्कि कुछ विश्वस्त लोगों की राय में उसमें से देशी भाइयों की सहायता होती रहे। ___ अब इस विषय को अधिक नहीं बढ़ाना चाहते । बुद्धिमान पाठकगण आप विचार सकते हैं कि यह उपाय कैसा है। इसकी कैसी आवश्यकता है और कैसे लाभ का संभव है । परंतु प्रिय महाशय ! केवल सुनने सुनाने से इस कथा में कुछ भी फल नहीं होगा, "कल्ह करन्ते आज कर आज करन्ते अब्ब"। इस काम को एक जरा छेड़िये, फिर देखिये क्या होता है । बङ्गालियों के कुछ चार हाथ पैर नहीं हैं । तुम भी समझते होगे कि 'हिम्मते मरदां मददे खुदा' इस प्रदेश में भी एक से एक विद्वान धनवान हैं। देखें तो कौन वीर पहले कदम बढ़ाता है। खं० १ सं० ८ (१५ अक्टूबर सन् १८८३ ई.) कान्यकुब्जों ही की सबसे हीन दशा क्यों है यों तो देश का देश अवनति पर है, परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि विचार से देखा जाय तो हमारे कान्यकुब्ज भाई सबसे अधिक दीन दशा में मिलेंगे। इस पर भी बड़े खेद का स्थान यह है कि जिन बातों से इनकी दिन दिन दुर्गति होती जाती है उनका छोड़ना तो जैसा तैसा, बहुतेरे उन्ही सत्यानाशी ढंगों को ब्राह्मणत्व ( कनव. जियांय ) समझे बैठे हैं। शास्त्र में लिखा है कि विप्राणां ज्ञानतो ज्यष्ठधम् अर्थात् ब्राह्मण की बड़ाई ज्ञान से होती है। पर इन्होने मिथ्या कुलाभिमान, जिस का वेद शास्त्र पुराण आदि में कहीं कुछ पता ही नहीं मिलता, उसमें ऐसा बड़प्पन मान रखा